: वैशाख : २४९६ आत्मधर्म : ३३ :
[अनुसंधान पृ. २४ थी चालु: लाठीनुं प्रवचन]
जुओ, अनादिथी जीवे शुं कर्युं?
जडना शरीरना कार्योनी प्रवृत्ति जडमां छे, जीव तेनो कर्ता नथी; जीवे अनादि
अज्ञानथी राग–द्वेष–पुण्य–पापने पोतानां मानीने तेनी ज प्रवृत्ति करी छे, ते प्रवृत्तिनुं
नाम अधर्मनी प्रवृत्ति छे, ते दुःखदायकप्रवृत्ति छे. पोताना राग वगरना
चिदानंदस्वरूपने ओळखतां वीतरागविज्ञानरूप प्रवृत्ति थाय छे; आवी ज्ञानप्रवृत्ति ते
धर्मप्रवृत्ति छे, ते परम आनंदरूप छे.
जीवने संसारनो रस छे एटले त्यां बधुं याद रहे छे. वेपार केटलो? दीकरी
दीकरा केटला? कोनी उंमर केटली? कई वस्तुनो भाव शुं? तेमां वधघट केटली? नफो
केटलो? ए बधुं प्रेमथी याद राखे छे, ने आत्मानुं स्वरूप समजवानी वात आवे त्यां
कहे के अमने कांई याद नथी रहेतुं.–तो एने आत्मानो प्रेम ज क््यां छे? आत्मानो
साचो प्रेम होय तेनी वात समजाया वगर रहे नहीं. चैतन्यनी प्रीतिपूर्वक (एटले के
रागना लक्षे नहि पण चैतन्यना लक्षे) एकवार पण तेनी वात जेणे सांभळी छे एटले
के सांभळीने लक्षमां लीधी छे, ते जीव अल्पकाळमां सम्यग्दर्शनादि पामीने मोक्षदशा
पामे छे.
अरेरे, अनंतकाळथी मारो आत्मा संसारमां बहु दुःखी छे. हुं मारुं साचुं स्वरूप
न समज्यो तेथी ज हुं दुःखी थयो, माटे हवे मारुं साचुं स्वरूप समजुं–जेथी मारुं दुःख
मटे. साचुं स्वरूप केवुं छे? ते कहे छे –
छुं एक शुद्ध ममत्वहीन हुं ज्ञानदर्शनपूर्ण छुं;
एमां रही स्थित लीन एमां, शीघ्र आ सौ क्षय करुं.
प्रथम तो, स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष एवो हुं छुं–एम नक्की करवुं. आत्मानो अनुभव
करवामां कोई परनी, देव–गुरु–शास्त्रनी के शुभरागनी पण अपेक्षा नथी, पोते पोताना
स्वसंवेदनथी आत्मा स्वानुभव करे छे. रागनो एक कणियो पण मने धर्म पामवामां
जराय मदद करशे एम माने तो ते रागथी भिन्न कदी थाय नही ने तेने ज्ञानस्वरूप
आत्मा कदी अनुभवमां आवे नहीं. अहीं तो कहे छे के स्वने भूलीने एकला रागने
जाणवामां रोकायेलुं ज्ञान ते पण आत्मानुं स्वरूप नथी, ते ज्ञान नथी पण अज्ञान छे,
खंड–खंडज्ञान छे. अंतरमां ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थईने तेने संचेते ते ज खरूं ज्ञान
छे. आवी ज्ञानचेतनास्वरूपे आत्माने अनुभवतां भवना अंत आवे छे.