: वैशाख : र४९६ आत्मधर्म : ५ :
अनुभववो तेनुं नाम जीतेन्द्रियपणुं छे. ईन्द्रियोने जे पोतानुं स्वरूप माने तेने
जीतेन्द्रियपणुं थाय नहीं; एटले अतीन्द्रियज्ञानमय एवा अरिहंतनी परमार्थ
उपासना तेने होय नहीं.
७. णमो अरिहंताणं एम घणा बोले छे, ते अरिहंत परमात्मानी परमार्थ उपासना
केम थाय तेनुं आ वर्णन छे. अरिहंतनो भक्त केवो होय, तेने आत्मानुं ज्ञान
केवुं होय? ते आचार्यदेवे अलौकिक रीते बताव्युं छे. रागथी भिन्न एवा
आनंदना स्वादरूपे आत्माने अनुभवे तेनुं नाम सर्वज्ञनी स्तुति छे. आ
निश्चयस्तुति छे. निश्चयस्तुतिमां पोताना आत्मानुं ज अवलंबन छे, तेमां परनुं
अवलंबन नथी.
८. आवी निश्चयस्तुति जेने प्रगटी होय एटले के आत्माने रागथी जुदो जेणे
अनुभव्यो होय, तेने रागना विकल्प वखते बहारमां पण सर्वज्ञ–वीतराग
परमात्मानी आदर–स्तुतिनो भाव होय, सर्वज्ञ–वीतराग परमात्मा सिवाय
बीजा कोईने ते आदरे नहीं; रागवाळा, परिग्रहवाळा एवा कुदेवने ते कदी
भजे नहीं. साचा सर्वज्ञ–वीतराग परमात्मा प्रत्येनो स्तुतिनो भाव ते पण
राग छे, पुण्यबंधनुं कारण छे, ते कांई मोक्षनुं कारण नथी; पोताना
सर्वज्ञस्वभाव तरफनुं अंतर्मुख वलण ते ज मोक्षनुं कारण छे; ते ज सर्वज्ञनी
परमार्थस्तुति छे.
९. आत्मानो चैतन्यस्वभाव छे, ते अति सूक्ष्म छे. तेनी पासे पुण्य–पाप पण
स्थूळ छे, ने जड ईन्द्रियो तो अत्यंत स्थूळ छे. निर्मळ भेदज्ञाननी पवित्रतावडे
अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावनो अनुभव करतां जड ईन्द्रियोने जीव पोताथी सर्वथा
जुदी जाणे छे. आ जड शरीर आत्माथी सर्वथा जुदुं ज छे. आत्मा सदाय
चैतन्यपणे रह्यो छे, शरीर सदाय अजीव थईने रह्युं छे, ते कदी जीवरूप थयुं
नथी. आवुं भेदज्ञान जेणे कर्युंं ते जीव सर्वज्ञना मार्गमां आव्यो, ते अरिहंतनो
साचो अनुयायी थयो, ते जैन थयो.
१०. अहो, आवो अवसर पामीने आत्मा अने शरीरनी भिन्नता ओळखवी जोईए;
ज्ञानमां वारंवार तेनो अभ्यास करवो जोईए. बीजां पोथां तो घणा भण्यो,
पण परथी भिन्न पोताना ज्ञानानंदस्वभावनो साचो अभ्यास कर तो ज तारो
भवथी छूटकारो थशे.
(विशेष आवता अंके)