Atmadharma magazine - Ank 320
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
प्रश्न:– शुं कोई व्यवहार ते मोक्षनुं कारण थाय?
उत्तर:– हा; एक व्यवहार एवो पण छे के जे मोक्षनुं कारण छे. क्यो व्यवहार?
–‘आत्माना स्वभावनी भावना ते आत्म स्वभावरूप होय छे, अने ते ज
आत्मव्यवहार छे, अने ते व्यवहार ज आत्माने मुक्तिनुं कारण छे, बीजो व्यवहार
मुक्तिनुं कारण नथी.’
ए ज शब्दो कहानगुरुना हस्ताक्षरमां वांचो–




–आ व्यवहारने मोक्षनुं कारण कह्युं ते निश्चयथी मोक्षकारण छे एटले के खरेखर
ते मोक्षनुं कारण छे. आ सिवाय पराश्रितभावरूप बीजो कोई व्यवहार ते मोक्षनुं कारण
नथी. अने मोक्षना कारणरूप आवो व्यवहार पण शुद्ध निश्चयस्वभावना आश्रये ज
प्रगटे छे; माटे ते निश्चयस्वभाव ज आश्रय करवायोग्य छे.
चालो जाणीए–शास्त्रनी अवनवी वातो
सर्वार्थसिद्धिदेवमां असंख्यातवर्षे एकाद जीव ऊपजे छे.
देवलोकमां सर्वार्थसिद्धिना जीवो करतां तीर्थंकर थनार जीवो असंख्यात गुणा छे.
तीर्थंकर सरेराश दर आठ वर्षे एक थाय छे, ज्यारे सर्वार्थसिद्धिनादेव असंख्यात
वर्षे एक थाय छे.
देवगतिमां सर्वार्थसिद्धिना देवो संख्याता ज छे; ज्यारे त्यांथी नीकळीने सीधा
तीर्थंकरपणे अवतरनारा जीवो असंख्याता छे.
देवलोकमां अने नरकमां दररोज असंख्यात जीवो ऊपजे छे, ने असंख्यात जीवो
मरे छे.
देवलोकमांथी अने नरकमांथी मरीने, मोटा भागना जीवो तो तिर्यंच गतिमां ज
अवतरे छे, मनुष्य तो कोईक ज थाय छे.