: १६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
आत्माना ज्ञान वगर शुभराग करीने स्वर्गमां जईने पण जीव दुःखी थयो,
जरा पण सुख न पाम्यो. सुखनो अनुभव त्यारे थाय के ज्यारे रागथी जुदो
पडीने ज्ञानचेतना प्रगट करे.
३०. जुओ, आ शेनो उत्सव छे? अनंत आनंदने पामेला जे परमात्मा, तेमने
ओळखीने आ प्रतिमामां तेमनी प्रतिष्ठा थाय छे; तेम पोतानो आत्मा
परमेश्वर थवानी ताकातवाळो छे तेनी ओळखाण करीने तेमांथी परमात्मपद
प्रगट करवानी आ वात छे. आत्माने ज परमेश्वर बनाववानी आ वात छे.
३१. सर्वज्ञ परमात्मानी घणा प्रकारे स्तुति करतां करतां छेवटे मुनिराज कहेशे के हे
भगवान! विकल्पमां ने वाणीमां तो आपना गुणो केटला आवे? अनंत
गुणना निधान एवा आपनी स्तुति तो ज्यारे विकल्प तोडीने आत्माना
अनुभवमां एकाग्र थशुं त्यारे ज पूरी थशे. प्रभो! बहारना आ चामडाना
चक्षुथी पण आपने देखतां घणो हर्ष थाय छे, तो अंतरना ज्ञानचक्षुथी आपने
देखतां जे परम आनंद थाय तेनी तो शी वात!
३२. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने रत्न कह्यां छे; तो तेना फळरूपे जे केवळज्ञानादि
प्रगट्या ते महा रत्न छे. आवा अनंत रत्नोनी खाण आत्मा छे तेथी ते महा
चैतन्य– रत्नाकर छे. आवो रत्नाकर पोते होवा छतां जीवने पोतानी खबर
नथी, ने बहारनी लक्ष्मी वगेरेथी मोटाई मनावे छे. पोतामां ज अरिहंतपदनुं
ध्यान करतां जे आनंद थाय छे तेने तो धर्मी ज जाणे छे.
३३. अरिहंतदशा तो आत्मामां प्रगट नथी, छतां तेनुं ध्यान केम?–तो कहे छे के
अरिहंतपणुं आत्माना स्वभावमां विद्यमान ज छे, ते स्वभावने ध्यावतां
आनंद प्रगटे छे. अंदर जे सत् स्वभाव छे तेनुं ध्यान सार्थक छे, ते जूठुं नथी.
एटले ‘हुं सिद्ध छुं– हुं अरिहंत छुं’ एम निजस्वभावनुं जे ध्यान छे ते सत्य
छे. जो ते सत्य न होय तो तेना फळमां आनंद केम आवे?
३४. अरिहंत–सिद्ध जेवा शुद्धस्वभावे पोताना आत्माने ध्याववो ते ज अरिहंत अने
सिद्धनी साची भक्ति छे. आ सिवाय रागना विकल्पो ते कांई मूळवस्तु नथी,
अने बहारनी क्रियाओ ते तो जडनी क्रियाओ छे. ते जडक्रियाओ के राग कांई
मोक्षनुं कारण नथी. ‘परमात्मस्वरूप हुं ज छुं’–एवुं निजस्वरूपनुं ध्यान ज
मोक्षनुं कारण छे.
(विशेष माटे जुओ पानुं २२)