: जेठ : २४९६ आत्मधर्म : १७ :
सोनगढमां वैशाख सुद पांचमे कहान–सोसायटीना
उद्घाटन प्रसंगे पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी
(समयसार गाथा २७२)
चैतन्यमां निवास करीने वीतरागभाव प्रगट करवो ते
अपूर्व वास्तु छे. सम्यग्दर्शन अलौकिक वस्तु छे; लोकोने तेना
महिमानी खबर नथी. सम्यग्दर्शन थयुं तेना घरमां
आत्मानो जे शुद्धस्वभाव, परनी भेळसेळ वगरनो छे ते निश्चय छे; अने
पराश्रित भावो ते व्यवहार छे. मोक्षने साधवा माटे मुमुक्षुए ते व्यवहारनो आश्रय
छोडवा जेवो छे ने निश्चयनो आश्रय करवा जेवो छे.
शुद्धनय पोते पर्याय छे, पण ते अंतरमां आश्रय करे छे निश्चयस्वभावनो; तेथी
अध्यात्मशैलीमां शुद्धनय अने तेनो विषय शुद्धआत्मा–ते बंने अभेद छे. आवी अभेद
द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन बहु दुर्लभ चीज छे. जेम झवेरातनी दुकान अने
तेना गराग हंमेशा थोडा ज होय छे तेम जगतमां सम्यग्द्रष्टिजीवो थोडा ज होय छे,
बहुभाग तो व्यवहारमूढ मिथ्याद्रष्टि जीवोनो ज छे. सम्यग्द्रष्टि भले थोडा, पण जेणे
आत्मानुं कल्याण करवुं होय ने आ संसारना अनंतदुःखथी छूटवुं होय तेणे आत्मानुं
भान करीने सम्यग्दर्शन करवुं ते प्रथम कर्तव्य छे. ते सम्यग्दर्शन थवानी रीत अहीं
आचार्यदेव बतावे छे.
शुद्धनयनो विषय शुद्ध अभेद आत्मा छे. नय ते अंश छे; पण आ अंश, अने
आ ध्रुव–एवो भेद अध्यात्मद्रष्टिमां नथी; अध्यात्मद्रष्टिमां अभेद आत्मा एक ज छे.
तेमां गुणगुणीभेद पण नथी, तो पछी रागनी के जडनी क्रियानी वात तो क्यां रही?
परथी भिन्न, रागादिथी भिन्न, एवा शुद्धात्मानो आश्रय ते निश्चय छे; अने एवी
निश्चयद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि छे.
वस्तु अबंध, तेना गुणो अबंध; अने तेनी सन्मुख जे परिणति वळी ते पण
अबंध; वच्चे जे रागादि बंधभाव बाकी रह्या ते व्यवहारमां गया, तेनो आश्रय धर्मीने
नथी, धर्मी तेमां एक्ता मानता नथी. सम्यग्दर्शन थतां आत्मामांथी ज भणकारा