: जेठ : २४९६ आत्मधर्म : २५ :
४७. जेनाथी जीवने बंधन थाय ते धर्म नहीं; अने जे धर्म तेनाथी बंधन थाय नहीं.
सम्यग्द्रष्टिने ज तीर्थंकर नामकर्म बंधाय, अने छतां ते बंधनुं कारण सम्यग्दर्शन
नथी; सम्यग्दर्शन साथेनो जे राग छे ते ज बंधनुं कारण छे. ते राग बंधनुं ज
कारण छे, ते कांई मोक्षनुं कारण नथी. आ रीते बंधभावोथी भिन्न आत्माने
जाणवो ते सर्वज्ञनो मार्ग छे, ते अरिहंतनी स्तुति छे.
४८. जेटला पराश्रित व्यवहार भावो छे ते बधायथी धर्मी पोताने भिन्न,
ज्ञानचेतनामात्र अनुभवे छे. कोई पण व्यवहारमां एटले के पराश्रयभावमां
तन्मयबुद्धि ते मिथ्यात्व छे. धर्मी जीव सर्वे पराश्रयभावोथी मुक्त छे, जुदो छे.
आवुं भान होवा छतां, साधक दशामां धर्मीने ज्ञानथी भिन्नपणे शुभराग आवे
छे एटले वीतराग भगवाननी भक्ति वगेरेना भाव आवे छे; एवी
व्यवहारस्तुति छे, अने अंदर जे वीतराग दशा थई ते परमार्थ स्तुति छे.
४९. तीर्थंकर थनार जीव ज्यारे माताजीना गर्भमां अवतरे छे त्यारे ईन्द्रो आवीने ते
माताजीनुं सन्मान–पूजन करे छे, अने कहे छे के हे रत्नकुंखधारिणी माता! तमे
तो जगतनी जनेता छो. तमारो तो पुत्र छे पण जगतनो ते नाथ छे. हे माता!
आवा जगतारणहारने उदरमां धारण करवाथी आप पण जगपूज्य छो.
भगवानना माता–पिता पण मोक्षगामी होय छे.
५०. माताना उदरमां हतो त्यारे पण भगवाननो आत्मा जाणतो हतो के आ देह हुं
नथी, हुं तो मारा असंख्य प्रदेशमां अनंत गुणे परिपूर्ण छुं.–आवा स्वरूपे
भगवान पोताने जाणता हता, ने आवा स्वरूपे भगवानने ओळखवा ते ज
साची स्तुति छे.
५१. ए ज भवमां केवळज्ञान प्रगट करीने जेओ परमात्मा थवाना छे अने ईन्द्रो
जेनी जन्म पहेलां पण सेवा करे छे एवा तीर्थंकरने, केवळज्ञान पछी तो आहार
के नीहार कंई होतुं नथी, अने नीहार (मळ–मूत्र) तो जन्मथी ज तेमने नथी
होता. एनो देह पण दिव्य होय छे. एने रोग न होय, परसेवो न होय;
केवळज्ञान थया पछी आहार न होय.
५२. भगवाननो अवतार थया पछी मेरु उपर ईन्द्र तेमनो जन्माभिषेक करे छे अने
हजार नेत्र खोलीने टमकार रहित आंखथी प्रभुनुं रूप नीहाळ्या करे छे,–एवुं