: २६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
अद्भुत रूप होय छे. आ रीते ईन्द्रे प्रभुने नीहाळ्या त्यारे तेनां नेत्रनी सफळता
थई. तेम अंतर्मुख थईने ज्ञानचक्षुवडे ज्यारे अंतरमां पोताना परमात्माने
नीहाळे त्यारे जीवना ज्ञानचक्षुनी सफळता छे.
५३. मेरु पर्वत तो शाश्वत अनादि छे, ने सूर्य–चंद्र अनादिथी तेनी प्रदक्षिणा करे छे;
पण भक्तिना अलंकारथी मुनिराज कहे छे के हे नाथ! मेरु उपर ज्यारे आपनो
जन्माभिषेक थयो त्यारे ते महान तीर्थ बन्यो अने तेथी सूर्य–चंद्र तेनी प्रदक्षिणा
करवा लाग्या; तेम आत्माना स्वभावमां तो अनंत दर्शन–ज्ञान–आनंद छे ज
पण तेनुं भान करीने ज्यारे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंद प्रगट कर्या त्यारे आत्मा
पोते तीर्थ थयो. आ रीते तरवानो उपाय प्रगट करीने पोताना आत्माने
परमात्मा बनाववानी आ वात छे.
५४. रागमां राग हो, ज्ञानमां राग नथी. ज्ञान अने रागनुं जुदुं स्वरूप जाणीने धर्मी
पोताने ज्ञानपणे अनुभवे छे, ने रागने परज्ञेयपणे जाणे छे. आवा अखंड
ज्ञानना अनुभवथी धर्मीए अनादि कर्मधाराने खंडखंड करी नांखी छे;
आचार्यदेव अलंकारथी कहे छे के हे नाथ! ईन्द्रे ज्यारे आपनी भक्ति करी ने
तांडवनृत्य कर्युं त्यारे तेना हाथ भटकावाथी आ वादळनां खंडखंड थई गयेला,
तेना कटका हजी आकाशमां घूमी रह्या छे; तेम अंतरमां ज्ञानवडे आपनी भक्ति
करतां अमारा कर्मरूपी वादळांना पण टूकडेटूकडा थई गया छे.
५प. स्वानुभव वडे धर्मीने असंख्यप्रदेशी चैतन्यपृथ्वीमां अनंतगुणना अंकूरा
फूट्या छे. केमके चैतन्यनाथनी प्राप्तिथी ते सनाथ बन्या छे. पहेलां पर्यायमां
आनंदनो दुकाळ हतो, पण हे नाथ! आपे कहेला आत्मानुं भान करीने ज्यां
अनुभव कर्यो त्यां अनंतगुणनी पर्यायमां निर्मळ अंकुरा फूट्या, आनंदना
बगीचा खीली नीकळ्या. धर्मीने अंतरमां आवी दशा खीले छे तेनी तेने
पोताने खबर पडे छे.
५६. वैशाख सुद बीजना मंगल प्रवचनमां गुरुदेव कहे छे के उपयोगस्वरूप आत्मा
छे ते पोते ज आत्माने माटे ध्रुव छे; एवा ध्रुव स्वभावने द्रष्टिमां लईने
परिणमवुं, ने वच्चे आवता अध्रुव संयोगी भावोमां न अटकवुं. परभावोने
स्पर्श्या वगर अंतरमां वळीने पोते पोताना स्वभावमां ध्रुवपणे गति करवी.
आ महामंगळ छे; ने आ जिनभक्ति छे.
५७. जेम रस्ते चाल्यो जतो मुसाफर, वच्चे आवता अनेक वृक्षोनी छायामां अटकतो