Atmadharma magazine - Ank 320
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
शांत अकषायरूप पोताने अनुभवे छे. आवो जेणे अनुभव कर्यो ते जितेन्द्रिय
जिन थयो, समकिती थयो.
६३. आत्माना आवा अकषाय ज्ञानानंद स्वरूपने वीतरागनी वाणी बतावे छे.
आवी वीतरागी वीरवाणी आत्माना वीतरागभावने ज पोषनारी छे. रागने
पोषे ते वीरनी वाणी नहीं, ए तो कायरनी वाणी छे.
– ‘वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूळ.’
६४. लींडीपीपरमां तीखासनी माफक आत्मामां आनंदस्वभाव भर्यो छे; आत्मा आ
देहथी भिन्न छे तेमां अनंत शक्ति छे. पोतानी आवी चैतन्यसंपदाने चुकीने जे
जीव बहारमां परवस्तुनी भीख मांगे छे, एटले के परचीज होय तो मने सुख
मळे एम माने छे ते जीव पराधीन भीखारी छे, थोडुंक मांगे ते नानो मांगण,
झाझुं मांगे ते मोटो मांगण; ने पोतानी पूर्ण चैतन्यसंपदाने जाणीने बीजुं कांई
न मांगे ते मोटो बादशाह छे. (आ न्याय सोनगढमां भावनगरना महाराजा
कृष्णकुमारसिंहजी आव्या त्यारे कह्यो हतो; आजे वैशाख सुद बीजे भावनगरमां
वीरभद्रसिंहजी प्रवचनमां आवतां ते न्याय कह्यो.)
६५. आनंदना सागरमां जेणे एक्ता करी छे ने राग साथेनी एकता जेणे छोडी छे ते
विरक्त गुरु छे; तेओ ज संसारथी छूटवानो ने मोक्ष पामवानो साचो रस्तो
बतावी शके. (विरक्त गुरुमां दिगंबर मुनिराज मुख्य छे.)
६६. जेने जगतनी बीजी अनेक विद्या आवडे छे पण भवसागरथी तरवा माटेनी
भेदज्ञानविद्या नथी आवडती, तेनी बधी विद्याओ दरियामां डुबवानी छे. अने
बहारनुं बीजुं जाणपणुं कदाच ओछुं होय पण जो अंतरमां रागथी भिन्न
चैतन्यविद्याने जाणे छे तो ते जीव अल्प काळमां त्रण लोकनी प्रकाशक एवी
केवळज्ञानविद्या प्रगट करीने भवसमुद्रथी तरी जशे.
६७. अरे आत्मा! तारा चैतन्यस्वरूपने जाणवानी एकवार तो लगनी लगाड.
पोतानी चैतन्यखाणने भूलीने बहारमां जडनी–पथरानी खाण खोदवा रोकायो,
ने रागमां धर्म मानीने रागनी खाण खोदवा रोकायो; पण एकवार जडथी भिन्न
रागथी भिन्न एवी तारी चैतन्य खाणमां ऊंडो ऊतर तो तारा चैतन्यना
अपूर्व निधान तने तारामां ज देखाशे ने परम आनंद थशे.