Atmadharma magazine - Ank 320
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म जेठ : २४९६
वीतरागतारूपी अमृतथी भरेलो चैतन्यसमुद्र, तेमांथी बहार नीकळीने
अरिहंतादि परम उपकारी पुरुषो प्रत्येनो शुभराग, ते पण चंदनवृक्षना अग्निनी माफक
अंतरमां दाहने ज उत्पन्न करे छे. राग कांई शांति नथी आपतो, राग तो आकुळतारूपी
दाह उत्पन्न करे छे. वीतरागी परमात्मा एवो पोतानो स्वभाव, तेने छोडीने बहारमां
बीजा वीतराग पुरुषो प्रत्येनो राग ते पण मोक्षने माटे पालवतो नथी; तेने पण
छोडीने ज्यारे जीव वीतराग थाय त्यारे ज ते मुक्ति पामे छे.
शुभरागना पुण्य वडे भले ईन्द्रसंपदा मळे तोपण तेना लक्षे जीवने रागनी
बळतरा ज थाय छे. स्वद्रव्यना आश्रयने छोडीने जरापण परद्रव्यनो आश्रय थाय तेमां
रागनी बळतरा ज छे. अरे, ज्यां आत्मा सिवाय अन्य वीतरागी पंचपरमेष्ठी
भगवंतोना आश्रयनुं बाह्य वलण तेमां पण राग अने बळतरा छे, तो ईन्द्रनी विभूति
वगेरे पांच ईन्द्रियोना विषयो प्रत्येना रागनी बळतरानुं तो शुं कहेवुं? भाई! तारा
आत्मानुं जे शुद्ध पूर्णानंदी स्वरूप तेमां ज तारी परम शांति छे, तेमां ज तारो मोक्षमार्ग
छे. एनाथी बहार क्यांय जराय शांति के हित नथी.
रागमां जेने बळतरा न लागे ने तेमां हित लागे तेने वीतरागी मोक्षमार्गनी
खबर नथी, चैतन्यनी शांतिनी तेने खबर नथी; ते रागने छोडीने वीतरागमार्गने
क्यांथी साधशे? आचार्य भगवान स्पष्ट कहे छे के हे मोक्षार्थी जीवो! कोई पण रागमां
तमे रोकाशो नहीं, चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने, सर्वत्र किंचित पण राग करवानुं
छोडीने वीतरागभाव वडे ज तमे भवसागरने तरशो. माटे ते ज कर्तव्य छे; ते ज
शास्त्रोनुं परम हृदय छे. मोक्षार्थीने आवा वीतरागभाव सिवाय बीजुं कांई पण तात्पर्य
नथी. रागनी अनुभूतिथी तद्न भिन्न एवी जे ज्ञानअनुभूति, ते तात्त्विक आनंदथी
भरेली छे, अने एवी ज्ञानअनुभूति वडे शीघ्र परम आनंदमय मोक्षदशा प्रगटे छे.–आ
रीते महाजनो महापुरुषो वीतरागभाव वडे मोक्षने पामे छे.
रागमां धर्म मानीने जेओ रोकाई गया छे तेओ महाजन नथी पण तेओ तो
तूच्छ जन छे. महाजन महापुरुष तो खरेखर ते छे के जे रागने सर्वथा छोडीने
वीतरागभाववडे मोक्षने साधे छे. रागमां मोटाई नथी, मोटाई तो वीतरागभावमां छे.
वीतरागभावने जे आदरे छे ते ज खरा महाजन छे. ते महाभाग भगवंतो अपुनर्भव
एवा मोक्षने माटे नित्य उद्यमी छे. तेओ चेतनावडे शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां स्थिर थता जाय
छे, एटले राग छोडीने वीतराग थता जाय छे; ए रीते अत्यंत स्थिर ज्ञानअनुभूति वडे
तात्त्विक आनंदथी भरपूर मोक्षने साधे छे. आ रीते वीतरागभाव वडे ज भवसागरने
तराय छे. माटे आवो वीतरागभावरूप साक्षात् मोक्षमार्ग जयवंत वर्तो!
(पंचास्तिकाय गा. १७२)