: जेठ : २४९६ आत्मधर्म : ४प :
आपके भोजनका प्रसाद
हमको भी दीजिये
आ भजन द्वारा
मुनिराजनी स्तुति करतां कवि
नैनानंदजी कहे छे के अहो, धन्य ते योगीराज के जेओ एवुं भोजन बनावे छे,–जे
भोजननो स्वाद लेतां पापनो नाश थई जाय छे. ते योगीराज अंतरना अनुभवरूपी
कुवामांथी ज्ञानसुधारसरूपी शुद्ध जळ भरी लावे छे, ने जेमां अशुद्धतानो प्रवेश न थाय
एवा शीलरूपी चोको लगावे छे; आठ कर्मरूपी काष्टने शोधी–शोधीने बाळे छे ने
ध्यानअग्नि जलावे छे...आवी विधिथी एक योगी भोजन बनावे छे.
भोजनमां शुं बनावे छे?
स्वानुभवरूपी वासणमां निजगुणरूपी चोखा, अने समतारूपी दूध मेळवीने
खीर बनावे छे; साथे ‘सोहं’ एवी द्रढ निःशंकता आदि अष्ट गुणरूपी शाकने सम्यक्त्व
वडे वघारे छे.. वळी स्यादवादरूपी सप्त भंगना मसाला नांखे छे–जे गणतां पार
आवतो नथी; निश्चयनयनो चमचो फेरवीने तेने हलावे छे ने बार भावना भावे छे.
एक योगीराजे आवुं
सरस भोजन तो बनाव्युं, –
पण हवे ते खवडावे छे कोने?
स्वानुभवना भाजनमां आवुं भोजन बनावे छे ने योगीराज पोते ज ते खाय
छे; खातां खातां धरातां नथी;–आवुं भोजन करवा छतां ते योगीराज मुक्तिपंथने सेवी
रह्या छे.–अहो! नयनोने आनंदकारी एवा ए योगीराजने कवि नैनानंद शिर नमावीने
नमस्कार करे छे.