: ६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
एक तरफ ज्ञानानंदथी परिपूर्ण शुद्धस्वभाव छे, बीजी तरफ राग–द्वेष–क्रोध–
अज्ञान आदि परभावो छे. जे तरफ रुचि करीने तन्मयता करे तेवी परिणति
थाय स्वभावनी रुचि करीने तेमां तन्मय थतां आनंदमय मोक्षदशा थाय छे;
रागादिनी रुचि करीने तेमां तन्मयपणुं मानतां दुःखरूप संसारदशा थाय छे.
एक निजपद छे, एक परपद छे; एक शुद्ध छे, एक अशुद्ध छे,–ज्यां रुचे त्यां
जाव. अरे जीव! ज्यां सुधी तारा शुद्धस्वभावनो तुं स्वीकार नहीं कर (श्रद्धा–
ज्ञान–अनुभव नहीं कर) त्यां सुधी बीजुं गमे ते करवा छतां तुं मोक्ष नहीं पाम,
संसारमां ज रखडीश. जो तुं मोक्षने चाहतो हो तो शुद्ध चैतन्यमय
केवळज्ञानस्वभावी एवा तारा आत्माने जाण.
ज्ञान तेने कहेवाय के जे ज्ञानस्वभावनो ज आश्रय करीने वर्ते. रागनो के परनो
आश्रय करीने वर्ते ते खरेखर ज्ञान नथी; ज्ञाननुं फळ तो ए छे के परथी भिन्न
वस्तुभूत ज्ञानमय शुद्धआत्मा अनुभवमां आवे. आवो ज्यां अनुभव नथी
त्यां साचुं ज्ञान नथी.
जेटलो पराश्रित भाव छे ते बधो बंधनुं कारण होवाथी मोक्षना साधनमां तेनो
निषेध छे. जे अज्ञानी कुदेव, तथा रागने हिंसाने धर्म मनावनारा कुगुरु–
कुशास्त्रो तेनो आश्रय करवामां तो महा मिथ्यात्व पापनुं पोषण छे, तेने तो
व्यवहारमां पण गणता नथी. अहीं तो जिनभगवाने कहेला व्यवहारनी वात
छे. साचा देव–गुरु–शास्त्र के जेओ आत्मानुं सत्य स्वरूप बतावनारां छे, तेमना
तरफ ढळतो जेटलो रागादि पराश्रयभाव छे ते पण मोक्षनुं साधन थतो नथी,
ते मात्र पुण्यबंधनुं कारण छे.–ते मिथ्यात्व नथी तेमज ते मोक्षनुं कारण पण
नथी; ते पुण्यनुं एटले के संसारनुं कारण छे. जो ते पराश्रित रागभावने मोक्षनुं
कारण माने तो मिथ्यात्व थाय छे. सम्यक्त्वनी भूमिकामां एवो शुभराग हो
पण तेने मोक्षनुं साधन समकिती मानता नथी. शुद्धआत्माना आश्रये जे श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र छे ते ज मोक्षनुं साधन छे.
परना आश्रयरूप व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र भले हो, पण जो
शुद्धात्माना अनुभवरूप निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र न होय तो त्यां
मोक्षमार्ग नथी; जो निश्चय–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धआत्मानो सद्भाव
होय तो ज मोक्षमार्ग छे.
ज्यां शुद्धात्माना आश्रयरूप मोक्षमार्ग छे त्यां नवतत्त्व वगेरेना विकल्परूप