Atmadharma magazine - Ank 321
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४९६ आत्मधर्म : ७ :
करे छे, ते जीव संयम पाळतो होय तोपण मिथ्याद्रष्टि छे.
२५. देवोथी वंदित एवा शीलसहित रूपने देखीने पण जे गर्व करे छे (–विनय नथी
करतो) ते सम्यक्त्वथी रहित छे.
२६. असंयतजीव वंदनीय नथी, वस्त्रविहीन होय तोपण ते वंदनीय नथी, ए बंने
जीवो समान छे, तेमांथी एक पण जीव संयत नथी.
२७. देहने वंदन करवामां आवतुं नथी, तेमज कूळने पण नहि, अने जाती संयुक्तने
पण नहि, जे नथी तो श्रमण के नथी श्रावक,–एवा गुणहीनने कोण वंदे?
(गुणथी ज वंदनीयपणुं छे.)
२८. तप, शील. गुण अने ब्रह्मचर्यथी युक्त एवा श्रमणने हुं सम्यक्त्वसहित
शुद्धभावे वंदुं छुं. सम्यक्त्वसहित शुद्धभावथी तेमने सिद्धिगमन थाय छे.
२९. तीर्थंकरदेव चोसठ चामरसहित अने चोत्रीस अतिशयसंयुक्त छे, तथा निरंतर
घणा जीवोनां हितनुं अने कर्मक्षयना कारणनुं निमित्त छे, तेमने पण हुं वंदुं छुं.
३०. ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप ए चार गुणोना समायोगथी थता संयमगुणवडे
मोक्ष थाय छे–एम जिनशासनमां कह्युं छे.
३१. ज्ञान ते जीवोने साररूप छे, वळी सम्यक्त्व पण साररूप छे, सम्यक्त्व वडे
चारित्र थाय छे अने चारित्र वडे निर्वाण थाय छे.
३२. सम्यक्त्व सहित ज्ञानथी, दर्शनथी, तपथी अने चारित्रथी,–ए चारेना
समायोगथी जीव सिद्धिने पामे छे, तेमां संदेह नथी.
३३. विशुद्ध सम्यक्त्व वडे जीव कल्याणनी परंपराने पामे छे, ते सम्यग्दर्शन–
रत्नलोकमां सुर–असुर वडे पूजाय छे.
३४. उत्तम गोत्र सहित मनुष्यपणुं पामीने, तथा तेमां सम्यक्त्वने प्राप्त करीने जीव
अक्षयसुखने अने मोक्षने पामे छे.
३५. एकहजारआठ सुलक्षणोथी युक्त तथा चोत्रीस अतिशय सहित एवा जे
जिनेन्द्रदेव विहार करे छे तेमने स्थावर–प्रतिमा कहेल छे.
३६. बार प्रकारना तपथी युक्त जीवो स्वकीय विधिबळथी कर्मनो क्षय करीने,
व्युत्सर्गपूर्वक देहरहित थईने अनुत्तर एवा निर्वाणने पाम्या.
(दर्शनप्राभृत पूर्ण: बीजुं सूत्रप्राभृत: जुओ पानुं १७)