: ६ : आत्मधर्म : अषाड : २४९६
१२. जेओ पोते दर्शनथी भ्रष्ट होवा छतां दर्शनना धारकने पोताना पगे पडावे छे.
(अथवा पोते दर्शनधारक जीवोना पगे नथी पडता,) तेओ लूला–मूंगा थाय छे,
अने तेमने बोधिनी प्राप्ति दुर्लभ छे.
१३. जाणवा छतां पण लज्जाथी, गौरवथी, के भयथी जे जीवो ते दर्शनभ्रष्ट मनुष्योने
पगे पडे छे, तेओ पापनुं अनुमोदन करनारा छे अने तेओने पण बोधि नथी.
१४. ज्यां बंने प्रकारनी ग्रंथिनो त्याग होय, त्रियोगथी संयममां स्थिति होय,
ज्ञानवडे करणनी शुद्धि होय अने ऊभाऊभा भोजन होय, त्यां दर्शन छे.
१५. सम्यग्दर्शन वडे सम्यग्ज्ञान थाय छे, ज्ञान वडे सर्व भावनी उपलब्धि थाय छे,
अने पदार्थनी उपलब्धि थतां जीव श्रेय–अश्रेयने जाणे छे.
१६. ए रीते श्रेय–अश्रेयने जाणनार पुरुष, दुःशीलने दुर करीने शीलवान थाय छे,
अने ते शीलना फळथी अभ्युदयने पामीने पछी निर्वाणने पामे छे.
१७. अहो, आ जिनवचन विषयसुखनुं विरेचन करावनार औषध छे, अमृतस्वरूप छे,
जन्म–जरा–मरणनी व्याधिने हरनार छे अने सर्व दुःखनो क्षय करनार छे.
१८. जिनदर्शनमां एक तो जिननुं रूप, बीजुं उत्कृष्ट श्रावकनुं, अने त्रीजुं आर्यानुं–
ए त्रण लिंग छे, ए सिवाय चोथुं लिग (भेष) जिनदर्शनमां नथी.
१९. जिनवरदेव द्वारा निर्दिष्ट छ द्रव्यो, नव पदार्थो, पांच अस्तिकाय अने सात
तत्त्वो,–तेना स्वरूपने जे श्रद्धे छे तेने सम्यग्द्रष्टि जाणवो.
२०. जीवादिनुं श्रद्धान ते सम्यक्त्व व्यवहारथी छे, निश्चयथी पोताना आत्मानुं
श्रद्धान ते सम्यक्त्व छे, एम जिनवरोए कह्युं छे.
२१. हे भव्य! आवा जिनप्रणीत दर्शनरत्नने तुं भावथी धारण कर, ते गुणरूप
रत्नत्रयमां सार छे अने मोक्षनुं प्रथम सोपान छे.
२२. हे भव्य! जेटली तारी शक्ति होय तेटलुं तो कर, अने जे करवाने तुं शक्तिमान न
हो तेनी श्रद्धा कर. केवळीजिने कहेलां तत्त्वोनुं श्रद्धान करनारने सम्यक्त्व छे.
२३. जेओ दर्शन–ज्ञान–चारित्र–तप अने विनयमां सदाकाळ स्थित छे–प्रशस्त छे
अने गुणधारक जीवोनो गुणानुवाद करनारा छे तेओ वन्दनीय छे.
२४. सहज–उत्पन्न रूपने देखीने जे मत्सरभावयुक्त जीव तेने मानतो नथी,–ईर्षा