Atmadharma magazine - Ank 321
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४९६ आत्मधर्म : ९ :
वीतरागी न्यायालयनो चुकादो
जेम न्यायालयमां कोण अपराधी ने कोण निर्दोष ते
नक्की थाय छे, तेमां अपराधीने जेल मळे छे, ने निर्दोष
होय ते छूटी जाय छे, तेम अहीं वीतरागी–न्यायालयमां
भेदज्ञान वडे तूलना थाय छे के क्यो जीव अपराधी छे? ने
क्यो जीव निर्दोष छे. तेमां अपराधीजीव संसारनी जेलमां
बंधाय छे, निरपराधी जीव आनंदमय मुक्ति पामे छे. जेओ
संसारजेलमांथी छूटवा चाहता होय ने आनंदमय मुक्तिने
प्राप्त करवा चाहता होय तेओ अपराध अने निरपराध
बंनेनुं स्वरूप ओळखीने रागना सेवनरूप अपराधने
छोडो.....ने शुद्धात्माना आराधन वडे निरपराध थईने
मोक्षने साधो.
(समयसार गा. ३०१ थी ३०प)
* संसाररूपी जेलमां कोण बंधाय छे?
जे जीव अपराधी होय ते.
* अपराधी कोण छे?
जे जीव पारकी वस्तुने ग्रहण करीने पोतानी माने छे ते अपराधी छे.
* ते अज्ञानी शुं अपराध करे छे?
पोतानो आत्मा तो शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छे, चैतन्यभाव ते ज पोतानो
छे, तेने बदले चैतन्यथी अन्य एवा रागादि पारका भावोने तथा पर
वस्तुओने ग्रहण करीने तेने पोतानां मानी रह्यो छे–ते परद्रव्यना
ग्रहणरूप अपराध छे.
* ते अपराधी शुं करे छे?
ते जीव पोताना शुद्धआत्मानुं सेवन छोडीने; अज्ञानथी रागादिरूपे ज पोताने