Atmadharma magazine - Ank 321
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४९६ आत्मधर्म : ११:
* रागना सेवन वडे निरपराधपणुं थाय खरूं? एटले के मुक्ति थाय खरी?
ना, राग पोते अपराध छे, बंधभाव छे, तेना सेवन वडे निरपराधपणुं के
मुक्ति न थाय. रागना सेवनथी लाभ मानवो ए तो मोटो अपराध छे.
* शुभराग वडे अपराध घटे तो खरोने?
अशुभना पापनी अपेक्षाए शुभरागमां अपराध घट्यो एम व्यवहारथी
भले कहेवाय, पण खरेखर रागथी जुदापणे आत्माने शुद्ध अनुभवे त्यारे ज
शुभरागमां अपराध घट्यो कहेवाय छे, बाकी जे रागरूप अपराधने ज
पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे तेने अपराध घट्यो केम कहेवाय?
निरपराधस्वरूपना लक्षे जेटलो राग घट्यो तेटलो अपराध घटयो.
* कोना सेवनथी मुक्ति थाय?
शुद्धआत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे ते आराधना छे, अने ते ज निरपराधपणुं
छे, तेनाथी मुक्ति पमाय छे. आ रीते रागरहित एवा शुद्धात्माना ज सेवनथी
मुक्ति थाय छे.
* आराधकजीव सदाय केवो वर्ते छे?
ते निःशंकपणे एम अनुभवे छे के ‘जेनुं लक्षण उपयोग छे एवो एक शुद्ध
आत्मा ज हुं छुं.’–आम निश्चय करीने पोताने शुद्ध अनुभवतो होवाथी तेने
शुद्धआत्मानी सिद्धि छे, एटले ते शुद्ध आत्मानी प्राप्तिरूप आराधना सहित
सदाय वर्ते छे.
* अज्ञानी जीव केवो छे?
स्व–परने एकमेक अनुभवनारा अज्ञानी जीवने परद्रव्यना ग्रहणनो सद्भाव
होवाथी शुद्ध आत्मानी सिद्धिनो अभाव छे. अशुद्धताने ज अनुभवतो
होवाथी ते अनाराधक छे, अपराधी छे, अने बंधाय छे.
* ज्ञानीनुं स्वकार्य शुं छे?
परभावोथी रहित एवा पोताना शुद्धआत्मानो अनुभव ते ज्ञानीनुं स्वकार्य
छे, ने भेदज्ञान वडे ज्ञानीने ते स्वकार्यनी सिद्धि छे. आवी सिद्धि ते ज
आराधना छे, ते ज निर्दोषपणुं छे, ते ज मोक्षनी साधना छे, ते ज आत्मानी