Atmadharma magazine - Ank 321
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 16 of 40

background image
अषाड : २४९६ आत्मधर्म : १३:
उपयोग सिवाय बीजा कोई परभावो मारां नथी, उपयोगस्वरूप ज हुं छुं–एम
जे एकला स्वद्रव्यने ज ग्रहण करे छे अने परद्रव्यने के रागने पोतामां जरापण ग्रहण
करतो नथी ते जीव निर्दोष निरपराधी छे, तेने जराय बंधन थतुं नथी, निःशंकपणे
शुद्धआत्मामां ज वर्ततो थको ते मोक्षने साधे छे.
–आवो वीतरागीन्याय समजीने हे जीव! उपयोगस्वरूप स्वद्रव्यने ज पोतानुं
जाणीने तेना अनुभववडे तुं मोक्षने साध, अने ए सिवायना समस्त परभावोने
पोताथी भिन्न जाणीने तेनुं ममत्व छोड.–आ सिद्धांतनो सार छे.....आ मुक्तिपंथ छे.
चैतन्यचिह्न वडे भेदज्ञान
(स्वानुभवनो उत्साह जगाडनारुं सुंदर प्रवचन)
चैतन्य–अनुभूति ते ज आत्मानुं चिह्न छे. चैतन्यथी भिन्न जे कोई भावो
छे ते आत्मा नथी. चैतन्यथी बाह्य एवा जे जुदा–अबद्ध पदार्थो स्त्री–कुटुंब–
लक्ष्मी वगेरे तो आत्मा नथी, ने बद्ध एवा जे रागादिभावो ते पण आत्मा नथी.
राग कांई चैतन्यनी अनुभूतिमांथी उत्पन्न थयेलो नथी, ते अनुभूतिथी बहार
छे. जो राग आत्मानुं स्व होय तो तो आत्माना अनुभवमांथी रागथी उत्पत्ति
थाय!–पण चैतन्यना अनुभवमां रागनो अभाव छे, चैतन्य ते रागनुं उत्पादक
नथी पण नाशक छे. आवा चैतन्यलक्षणस्वरूप आत्मानो अनुभव
गृहस्थपणामां रहेला जीवने पण थई शके छे. चैतन्यना विलासमां रागनो के
जडनो विलास नथी. अन्य जीवनो विलास पण आ जीवथी जुदो छे. अरे, आवो
स्पष्ट जुदो चैतन्यनो विलास, अने जडनी स्पष्ट भिन्नता, छतां अज्ञानीओ केम
मोह पामे छे?
अहा, जड–चेतनने भिन्न अनुभवनारा मुनिवरो चैतन्यना
अनुभवमां झूलता वनमां वसे छे. जेम जंगलनो राजा सिंह वनमां
निर्भयपणे विचरतो होय तेम परमेश्वर जेवा मुनि परमेष्ठी निर्भयपणे
वनमां विचरे छे ने एकत्व–स्वरूपने साधे छे. तेओ कहे छे के अरे, जगतना
जीवो आवा भिन्न चैतन्यने केम देखता नथी? तेओ केम अचेतनने चेतन
साथे एकमेक देखे छे? अमे तो अमारा आत्मामां स्पष्ट भिन्नता अनुभवीए
छीए ने मोहने अत्यंत नष्ट कर्यो छे; आवी स्पष्ट भिन्नता अमे दर्शावी