अषाड : २४९६ आत्मधर्म : १५ :
प्रतीतिना प्रतापे परमात्मा
प्रतीतिना अभावे परिभ्रमण
(१) आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, तेना ज्ञानमां सर्वज्ञ थवानी ताकात छे. ज्ञानने सर्व
परभावोथी भिन्न अनुभववुं ते सर्वज्ञ थवानो उपाय छे.
(२) जीव पोते पोताना आवा परिपूर्ण सामर्थ्यनी प्रतीत ज्यां सुधी न करे
त्यांसुधी आत्मानी सम्यक् प्रतीति थाय नहीं.
(३) ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं’ एवी प्रतीतिना प्रतापे आत्मा पोते परमात्मा थाय छे;
ने ते प्रतीतिना अभावे आत्मा संसारमां परिभ्रमण करे छे.
(४) ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं’ एवी प्रतीति करीने ज्यारे आत्मा तेने ध्यावे छे, एटले
के ध्यानमां ते ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे ग्रहीने तेमां तन्मयपणे लीन थाय
छे त्यारे तुरत ज परमआनंदमय केवळज्ञान प्रगटे छे.
(प) ते केवळज्ञानी भगवान संपूर्ण अतीन्द्रिय थया छे. तेमने ईन्द्रियो साथे
संबंधनो अभाव होवाथी तेओ ईन्द्रियोथी पार छे.
(६) सर्वज्ञनुं ज्ञान सर्व आत्मप्रदेशे सोळकळाए खीली गयुं छे. कोई आवरण तेने
नथी रह्युं के जे कांई पण ज्ञेयने जाणतां तेने रोके. तेओ निर्विघ्न खीलेली
निजशक्तिथी सर्वज्ञेयोने एक साथे प्रत्यक्ष जाणे छे.
(७) ज्ञाननी जेम भगवानना सुखनुं पण ए ज प्रमाणे समजी लेवुं. अतीन्द्रिय
थयेला ते सर्वज्ञभगवान भोजनादि ईन्द्रियविषयो वगर ज पोताना
अतीन्द्रिय परम सुखने अनुभवे छे. सुखना अनुभवमां विघ्न करनार
कोई कर्म तेमने नथी रह्युं, स्वाधीनपणे ज तेओ पूर्ण सुखरूपे परिणमी
गया छे, तेथी सुख माटे बीजा कोई विषयोनी अपेक्षा ते स्वयंभू–
परमात्माने नथी.
(८) सर्वज्ञतानी प्रतीतिनो एवो प्रताप छे के ते प्रतीति करवा जतां स्व–सन्मुखता
थईने आत्मप्रतीति थई जाय छे...ने सम्यग्दर्शन थाय छे. ते प्रतीतिनो प्रताप
तेने अल्पकाळमां सर्वज्ञपरमात्मा बनावी दे छे.