Atmadharma magazine - Ank 321
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४९६ आत्मधर्म : ३ :
निर्मळ पर्यायपणे ज ऊपजे छे. अज्ञानी पोतानुं स्वाधीन परिणमन भूलीने,
पराश्रयवडे विकार भावने करे छे, तेथी ज संसार छे.
पोतपोताना परिणामरूपे वस्तु पोते परिणमे छे, बीजुं कोई नहीं; एटले
पोताना परिणामनी सृष्टिनो रचनार पोते ज छे; बीजो कोई आ जीवना
परिणामनो कर्ता नथी, अने पोते बीजाना परिणामनी सृष्टिनो कर्ता नथी. आवुं
वस्तुस्वरूप जाणे त्यारे ते जीव ज्ञायक ज रहे छे. ज्ञानभावमां परने करवानी
मिथ्याबुद्धिनो अभाव छे. द्रव्यने पोतानी पर्यायपणे ऊपजवामां बीजा कोईनी
अपेक्षा नथी, बीजानी अपेक्षा वगर ज द्रव्यने पोतानी पर्याय साथे कर्ताकर्मनी
सिद्धि छे.–आवुं निरपेक्ष वस्तुस्वरूप छे. सत्–द्रव्य पोते ज उत्पाद–व्यय–ध्रुवता
युक्त छे. ते–ते समयनी सत् पर्याय ते वस्तुनो अंश छे, अने ते अंशपणे वस्तु
ऊपजे छे. पोतानी पर्यायपणे ऊपजती वस्तुने बीजा कोई साथे कर्ताकर्मपणुं होतुं
नथी, एवी निरपेक्षता छे. पोतानी ज्ञानपर्यायपणे ऊपजतो जीव, अजीवमां कांई
पण करतो नथी, अहीं तो एम बतावे छे के पोतानी विशुद्ध ज्ञानपर्यायरूपे
ऊपजतो जीव ते कर्मना बंधनमां निमित्त पण थतो नथी, ते कर्मप्रकृत्तिना निमित्ते
ऊपजतो नथी एटले के रागपणे ऊपजतो नथी पण पोतानी निर्मळ पर्यायरूपे ज
ऊपजे छे, अने ते निर्मळ पर्यायमां जीवद्रव्य पोते प्रकाशे छे.
जीवनां ज्ञानपरिणामने जीव साथे कर्ताकर्मपणानो संबंध छे, पण जीवनां
ज्ञानपरिणामने चश्मा साथे, के पुस्तक साथे, के जड ईन्द्रियो साथे कर्ताकर्मपणानो संबंध
नथी, तेमनाथी तो भिन्न ज्ञानपरिणाम छे, ने जीवथी अभिन्न छे.–आम जीव–
अजीवनां समस्त परिणामोमां समजी लेवुं.
‘आ हुं’ एम शुद्ध ज्ञानमय स्वसत्तानो स्वीकार करतां आत्मद्रव्य पोतानी
निर्मळपर्यायना प्रवाहरूपे ऊपजे छे. आत्मा सदाय परिणमे तो छे ज, पण ज्यारे
ते स्वसत्तानी सन्मुख थईने परिणमे त्यारे निर्मळपर्यायरूपे परिणमे छे, अने ते
पोतानी पर्याय साथे अनन्य छे, ने परनो ते अकर्ता छे.–आम स्वपर्यायपणे
ऊपजता स्वद्रव्यने हे भव्य! तुं जाण! अने ते–ते परिणाम साथे द्रव्यनुं
अनन्यपणुं जाण.
एकला विकार–अंश उपर जेनुं लक्ष छे तेने अंशी एवुं शुद्धद्रव्य लक्षमां आवतुं
नथी, शुद्धद्रव्य लक्षमां आवे त्यां पर्यायबुद्धि रहे नहीं ने