: ८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
२१. हे जीव! अनात्मवशपणे तुं त्रिभुवनमध्ये जळमां, स्थळमां, अग्निमां, पवनमां,
आकाशमां, पर्वत पर, नदीमां, कोतरमां, वृक्षमां, तेम ज वन वगेरेमां सर्वत्र
चिरकाळ सुधी रह्यो.
२२. आ लोकना उदरमां रहेलां सर्वे पुद्गलोने तें ग्रसित कर्या (खाधा), फरी फरीने
तेने भोगव्यां, तोपण तुं तृप्ति न पाम्यो.
२३. हे जीव! तृषाथी पीडित एवा तें त्रणभुवननुं बधुं पाणी पीधुं तोपण तारी
तृषा न मटी; माटे हवे एवुं चिंतन कर के जेनाथी भवमथन थाय.
२४. हे धीर मुनिवर! आ अनंत भवसागरमां तमे जे अनेक कलेवर ग्रहण कर्यां
अने छोडयां तेनुं कोई प्रमाण नथी.
२५–२६–२७. विषथी, वेदन–रक्तक्षय–भयशस्त्रघात–संकलेशथी, के आहार तथा
श्वासना निरोधथी आयुनो क्षय थाय छे; तेम ज हिमथी, अग्निथी, पाणीथी,
मोटा पर्वत के झाड उपरथी पडतां, अंगभंगथी, रसविद्याथी, योगधारणाथी,
तथा विविध प्रकारनां बीजा अनेक प्रसंगोथी मरण थाय छे;–ए रीते,
दीर्घकाळमां तीर्यंच–मनुष्यजन्मोमां ऊपजी, हे मित्र! आवा अपमृत्युना तीव्र
महादुःखने तुं घणीवार पाम्यो.
२८–२९. निकोतवासमां (अर्थात् लब्धिअपर्याप्त भवोमां) अंतर्मुहूर्तमां ६६३३६
(छांसठ हजार त्रणसो छत्रीस) वार तुं मरण पाम्यो. तेमांथी विकलेन्द्रियमां
(द्वि–त्रि–चर्तु–ईन्द्रियमां) अनुक्रमे एंसी, साईठ तथा चालीस, अने
पंचेन्द्रियमां चोवीस–ए प्रमाणे अंतर्मुहूर्तमां क्षुद्रभव जाणो.
३०. हे जीव! रत्नत्रयनी अप्राप्तिने कारणे ए रीते दीर्घसंसारमां तुं भम्यो, एम
जिनवरदेवे कह्युं छे, माटे ते रत्नत्रयने सम्यक्प्रकारे आचर.
३१. जे आत्मा आत्मामां रत होय ते जीव प्रगटपणे सम्यकद्रष्टि छे; आत्माने जे जाणे छे
ते सम्यग्ज्ञान छे, अने आत्मामां चरे छे ते चारित्र छे,–आवा रत्नत्रय ते मार्ग छे.
३२. बीजां अनेक प्रकारनां कुमरण–मरणथी अनेक जन्मांतरोमां तुं मर्यो; हे जीव!
हवे तो एवा सुमरण–मरणने भाव,–के जेथी जन्म–मरणनो विनाश थाय.
३३. जीव द्रव्यश्रमण थवा छतां पण, त्रिलोक प्रमाण सर्वक्षेत्रमां एक परमाणु जेटली
पण एवी खाली जग्या नथी के ज्यां ते जन्म्यो न होय ने मर्यो न होय.
३४. जिनलिंग पामीने पण परंपरा भावरहित एवो जीव अनंतकाळमां जन्मजरा–
मरणथी पीडित दुःखी ज थयो.