: १० : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
जीव चोराशीलाख योनिवासमां सर्वत्र भम्यो;–एवो कोई प्रदेश नथी के ज्यां ते
वारंवार भम्यो न होय.
४८. जीव भाव वडे ज लिंगी (अर्थात् साधु) थाय छे, एकला द्रव्यलिंगथी साधु
थवातुं नथी. माटे भावशुद्धि कर्तव्य छे; द्रव्यलिंगथी शुं कार्यसिद्धि छे?
४९. बाहु नामना मुनि बहारमां जिनलिंग धारक होवा छतां अंतरना दोषथी सकल
दंडकनगरने दग्ध करीने ते रौरव नरकमां पड्या.
५०. बीजा पण द्वीपायन नामना द्रव्यश्रमण उत्तम दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी अत्यंत
भ्रष्ट थईने अनंत संसारी थया,
५१. धीर अने विशुद्धमति एवा शिवकुमार नामना भावश्रमण युवतिओथी
घेरायेला होवा छतां परित संसारी थया.
५२. केवळीजिने–प्ररूपेला अगियार अंगरूप समस्त श्रुतज्ञान भणवां छतां भव्यसेन
नामना मुनि भावश्रमणपणुं न पाम्या.
५३. शिवभूति नामना महानुभाव ‘तुषमास भिन्न’ एम गोखता थका
भावविशुद्धि वडे केवळज्ञानी थया,–ए वात प्रसिद्ध छे.
५४. भावथी नग्न ते ज नग्न (साधु) छे; एकला बहारना नग्न लिंगथी शुं साध्य छे?
भावसहितना द्रव्यलिंगथी ज कर्म प्रकृतिना समूहनो नाश थाय छे.
५५. भावरहित नग्नपणुं ते अकार्य छे–कांई कार्यकारी नथी एम जिनदेवे कह्युं छे,–
एम जाणीने हे धीर! तुं नित्य आत्माने भाव.
५६. जे देहादि परिग्रहथी रहित छे, मानादि समस्त कषायो जेणे छोडया छे अने
जेनो आत्मा आत्मामां रत छे, ते भावलिंगी साधु छे.
५७. हुं ममत्वने परिवर्जु छुं अने निर्ममत्वमां स्थित थाउं छुं; मारो आत्मा ज मारुं
आलंबन छे, बीजा बधा भावोने हुं छोडुं छुं. (आवा भाववाळा भावलिंगी
साधु होय छे.)
५८. खरेखर मारा ज्ञानमां आत्मा छे; मारा दर्शन अने चारित्रमां पण आत्मा छे;
प्रत्याख्यानमां पण आत्मा छे अने संवर–योगमां पण मारो आत्मा ज छे.
५९. शाश्वत, ज्ञानदर्शनलक्षणरूप एक आत्मा ज मारो छे, बाकीनां सर्वे भावो
माराथी बाह्य छे, ने संयोगलक्षणवाळा छे.