Atmadharma magazine - Ank 322
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 44

background image
: श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : ११ :
६०. हे जीव! शीघ्र चारगतिथी छूटीने शाश्वत सुखने जो तुं ईच्छतो हो तो,
भावशुद्धि वडे सुविशुद्ध–निर्मळ आत्माने तुं भाव.
६१. हे जीव सुभावसंयुक्त थईने जीवस्वभावने भावे छे ते जन्म–जरामरणनो
विनाश करे छे ने प्रगटपणे निर्वाणने पामे छे.
६२. जिनदेवथी प्रज्ञप्त जीव ज्ञानस्वभाव अने चेतनासहित छे; कर्मनो क्षय करवा
माटे आवो जीव ज्ञातव्य छे.
६३. जेमने जीवस्वभावनो सद्भाव छे अने तेनो सर्वथा अभाव नथी (अर्थात्
आवा सद्भावरूप जीवने जेओ अनुभवे छे), तेओ देहथी भिन्न अने
वचनथी अगोचर एवा सिद्ध थाय छे.
६४. हे भव्य! जीव रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, शब्दरहित, अव्यक्तरूप,
लिंगग्रहणथी रहित, जेनुं संस्थान निर्दिष्ट थई शकतुं नथी एवो, अने
चेतनागुणमय छे;–आवा जीवने तुं जाण.
६५. हे जीव! अज्ञाननो शीघ्र नाश करवा माटे तुं पांच प्रकारना ज्ञाननी भावना
भाव. एवी भावनाना भावसहित तुं स्वर्ग–मोक्षना सुखनो भाजन थईश.
६६. भाव वगरना पठनथी के श्रवणथी शुं साध्य छे? भाव ज सागार के अणगार
धर्मना कारणभूत छे.
६७. द्रव्यथी तो बधाय नारकीओ तेम ज तिर्यंचो नग्न ज छे, वळी जन्मती वखते
बधा जीवो नग्न ज छे; पण परिणामथी अशुद्ध होवाने कारणे तेओ
भावश्रमणपणुं पामता नथी.
६८. जिनभावनाथी रहित एवो जीव दीर्ध काळ सुधी नग्न रहे तोपण ते दुःख पामे
छे, नग्न होवा छतां ते संसार सागरमां भमे छे, अने नग्न होवा छतां ते
बोधिलाभ पामतो नथी.
६९. हे जीव! पैशून्य–हास्य–मत्सर–अने मायाथी भरेलुं तथा पापथी मलिन एवुं
नग्न श्रमणपणुं ते तो अपजशनुं भाजन छे, तेनाथी तने शुं लाभ छे?
७०. दोषथी रहित एवा अत्यंत शुद्ध अंतरंगभावरूप जिनवरलिंगने तुं प्रगट कर:
अंतरमां भावमळथी मलिन जीव बाह्य परिग्रहथी पण मलिन थाय छे.
७१. धर्ममां जेनो वास नथी अने दोषनुं जे धाम छे ते ईक्षुनां फूल जेवो निष्फळ
अने निर्गुण जीव नग्न रूप वडे नटश्रमण जेवो लागे छे.
७२. जे जीवो रागना संगथी सहित छे अने जिनभावनाथी रहित छे, तेओ