: १२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
द्रव्यनिर्ग्रंथ होय तो पण विमल जिनशासनमां समाधि के बोधिने पामता नथी.
७३. जीव मिथ्यात्वादि दोषोने छोडीने भावथी नग्न थाय छे; पछी जिनाज्ञा–अनुसार
द्रव्यथी मुनिलिंग प्रगट करे छे.
७४. भाव ज दिव्य–शिवसुखनुं भाजन छे; भावथी रहित श्रमण ते तो कर्ममळथी
मलिन चित्तवाळा छे, अने पाप तथा तिर्यंचगतिनां भाजन छे.
७५. विद्याधरो–देवो अने मनुष्योनी हस्तांजलि वडे जेनी स्तुति करवामां आवे छे एवी
चक्रधरनी विपुल राजलक्ष्मीने तेमज बोधिने पण जीव उत्तम भाव वडे पामे छे.
७६–७७. जिनवरदेवे कहेला भाव शुभ, अशुभ अने शुद्ध–एम त्रण प्रकारनां जाणवा,
आर्त्त–रौद्र ध्यान ते अशुभ छे, धर्मध्यान ते शुभ छे; अने आत्मामां आत्माना
शुद्धस्वभावरूप भाव ते शुद्ध छे–ते पण ज्ञातव्य छे. आ प्रमाणे जिनवरदेवे त्रण
भावो कह्यां छे तेमांथी जे श्रेयनुं कारण छे तेने हे जीव! तुं सम्यक प्रकारे आचर.
७८. जेने मानकषाय अत्यंत गळी गयो छे, मिथ्यात्वमोह अत्यंत गळी गयो छे अने
जे समचित्त छे, ते जीव जिनशासनमां त्रण भुवनना साररूप बोधिने पामे छे.
७९. विषयविरक्त श्रमण सोळ उत्तम कारणोने भावीने तीर्थंकर नामकर्म बांधे छे
अने अल्पकाळमां मुक्त थाय छे.
८०. हे मुनिप्रवर! बार प्रकारनां तपश्चरणने तथा तेर प्रकारनी क्रियाओने त्रिविधे
भावो, तथा मातेला हाथी जेवा दुरितमनने ज्ञान–अंकुश वडे वशमां राखो.
८१. जेने पंचविध वस्त्रनो त्याग छे, भूमिशयन छे, द्विविध संयम छे, पूर्वे
शुद्धआत्माना भावने भाव्यो छे–एवा भिक्षुने निर्मळ शुद्ध जिनलिंग होय छे.
८२. जेम रत्नोमां श्रेष्ठ वज्ररत्न छे, अने वृक्षसमूहमां श्रेष्ठ चंदनवृक्ष छे, तेम
धर्मोमां सौथी श्रेष्ठ जिनधर्म छे; तेने हे जीव! भवना मथन माटे तुं भाव.
८३. पूजादिकमां तथा व्रतादिकमां तो पुण्य छे; अने आत्माना मोह–क्षोभ वगरनां
परिणाम ते धर्म छे, एम जिनदेवे शासनमां कह्युं छे.
८४. अज्ञानीजीव पुण्यने श्रद्धे छे, तेनी प्रतीति करे छे, रुचि करे छे, तेमज फरीफरी
तेनुं स्पर्शन अनुभवन करे छे;