: श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : १३ :
ते पुण्य तो भोगनुं कारण छे, ते कर्मक्षयनुं कारण नथी.
८५. रागादि समस्त दोषोने परित्यागीने जे आत्मा आत्मामां रत छे ते धर्म छे,
अने ते संसारतरणनो हेतु छे–एम जिनदेवे कह्युं छे.
८६. परंतु जे पुरुष आत्माने तो ईष्ट करतो नथी (–तेनां श्रद्धा–ज्ञानादि करतो
नथी), ते निरवशेष (सर्व प्रकारनां) पुण्यने करे तोपण सिद्धिने पामतो नथी,
तेने तो संसारी ज कह्यो छे.
८७. आ कारणे ते आत्माने तमे त्रिविधे श्रद्धो, अने प्रयत्नवडे तेने जाणो,–के जेथी
तमे मोक्ष पामशो.
(आ गाथा ८६–८७ सूत्रप्राभृतमां पण अक्षरश: छे: गा. १प–१६)
८८. शालिसिक्ख (चोखा जेवडो) मच्छ पण अशुद्धभावने लीधे महा नरकमां गयो;
–आम जाणीने हे जीव! तुं निरंतर आत्माने भाव, जिनभावना भाव.
८९. भावरहित जीवोने बाह्य परिग्रहनो त्याग, पर्वत पर–नदीकिनारे के गुफा–
कंदरामां आवास, अने समस्त ध्यान–अध्ययन, ते बधुंय निरर्थक छे.
९०. हे जीव! तुं प्रयत्न वडे ईन्द्रियसेनानुं भंजन कर, अने मनरूपी मांकडाने वश
कर; मात्र जनरंजन करवा अर्थे बाह्यव्रत–वेषने धारण न कर.
९१. हे जीव! भावशुद्धि वडे तुं मिथ्यात्वने तथा नव नोकषायना समूहने छोड, अने
जिन–आज्ञानुसार चैत्य, प्रवचन तथा गुरुनी भक्ति कर.
९२. तीर्थंकरदेवे भाषित अर्थने गणधरदेवोए सम्यक्पणे श्रुतज्ञानरूपे गूंथ्या, ते
अतुल श्रुतज्ञानने अत्यंत विशुद्धभावथी तुं अनुदिन भाव.
९३. आ ज्ञानजळने पामीने तेना पान वडे भव्यजीवो तृषानो नाश करीने दाहशोषथी
उन्मुक्त थाय छे, अने शिवालयवासी त्रिभुवनचूडामणि सिद्ध थाय छे.
९४. हे मुनि! सूत्रमां अप्रमत्तपणेअने संयमनो घात थवा दीधा विना काया वडे
सदाकाळ बावीस परिषहोने सहन करो.
९५. जेम पत्थर दीर्धकाळ सुधी पाणीमां रहेवा छतां भींजाई जतो नथी–भेदाई जतो
नथी, तेम साधु पण उपसर्ग अने परिषहोनी वच्चे पण भेदाता नथी.
९६. हे जीव! तुं अनुप्रेक्षाओने भाव, तेमज बीजी पच्चीस भावनाओने भाव;
भावरहित एवा बाह्यलिंगथी शुं कर्तव्य छे?