: १४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
९७. हे मुनि! तुं सर्वविरत थईने पण नव पदार्थोनुं, सात तत्त्वोनुं, तथा चौद
जीवसमास अने चौद गुणस्थाननां नामादिकनुं चिंतन कर.
९८. हे जीव! तुं नवविध ब्रह्मचर्यने प्रगट कर अने दशविध अब्रह्मने अत्यंतपणे
छोड; केमके मैथुनसंज्ञामां आसक्त थईने तुं भयंकर भवार्णवमां भम्यो.
९९. भावशुद्धि सहित मुनिवरो चतुर्विध आराधनाने प्राप्त करे छे; पण भावरहित
मुनिवर चिरकाळ सुधी दीर्घ संसारमां भ्रमण करे छे.
१००. भावश्रमणो कल्याणनी परंपरा सहित सुखने पामे छे; अने द्रव्यश्रमण कुदेव–
मनुष्य–तिर्यंचयोनिमां दुःखोने पामे छे.
१०१. हे जीव! छेंतालीश दोषथी दुषित आहारने ग्रहण करीने अशुद्धभावथी
तिर्यंचगतिमां अनात्मवशपणे तुं कष्टने पाम्यो.
१०२. रे दुर्बुद्धि! उद्धत्तपणा सहित अने गृद्धिपूर्वक सचित्त भोजन–पाणीने वारंवार
भोगवीने अनादिकाळमां तुं जे तीव्र दुःख पाम्यो तेनो विचार कर.
१०३. कंद–मूळ–बीज–पुष्प–पान वगेरे सचित वस्तुओने मान–गर्वसहित भक्षण
करीने हे जीव! तुं अनंत संसारमां रखडयो.
१०४. अविनयी माणस मुक्ति पामतो नथी–एवो उपदेश छे, माटे हे जीव! तुं मन–
वचन–कायाना त्रिविधयोगथी पांच प्रकारना विनयनुं पालन कर.
१०प. हे महाजश! भक्ति–अनुरागपूर्वक सदाकाळ निजशक्तिथी तुं उत्तम जिनभक्ति
कर, तथा दशप्रकारनां वैयावृत्य कर.
१०६. मन–वचन–कायाथी अशुभभाववडे करेला जे कोई दोष होय ते, मोटाई ने
माया छोडीने गुरुनी समीपमां तुं प्रगट कर,–गर्हा कर.
१०७. सत्पुरुष–श्रमणो दुर्जननां निष्ठुर कडवा चींटिया जेवा वचनोने पण, कर्ममळना
नाश अर्थे निर्ममभावथी सहन करे छे.
१०८. क्षमावडे परिमंडित (शोभित) उत्तम मुनिवर समस्त पापने क्षय करे छे, अने
खेचर–अमर तथा मनुष्योवडे अवश्य प्रशंसनीय थाय छे.
१०९. ए प्रमाणे क्षमागुणने जाणीने सकल जीवो प्रत्ये त्रिविधे क्षमा धारण करो; अने
चिरसंचित क्रोध–अग्निने उत्तम क्षमाजळ वडे सींचीने बुझावो.