: श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : १प :
११०. हे जीव! अविकारदर्शन वडे विशुद्ध थईने, अरे सार–असारने जाणीने, उत्तम
बोधिने माटे तुं दीक्षाप्रसंग वगेरेनुं चिंतन कर.
१११. अभ्यंतरलिंगनी शुद्धिथी संपन्न थईने तुं चतुर्विध लिंगनुं सेवन कर; केमके
भावरहित जीवने बाह्यलिंग प्रगटपणे अकार्यकारी छे.
११२. आहार–भय–परिग्रह अने मैथुनसंज्ञावडे तुं मोहित थयो, अने अनात्मवशपणे
अनादिकाळथी संसारवनमां भम्यो.
११३. भावविशुद्ध थईने, पूजा–लाभनी ईच्छा वगर, बाह्यशयन, आतापन अने
झाड नीचे वास वगेरे उत्तम गुणोनुं पालन कर.
११४. हे जीव! तुं प्रथम–तत्त्वने तेमज बीजा, त्रीजा, चोथा अने पांचमा तत्त्वने भाव;
वळी त्रिवर्गने हरनारा अनादिनिधन आत्माने त्रिकरणशुद्धि वडे ध्याव.
११५. जीव ज्यांसुधी तत्त्वनी भावना करतो नथी, अने चिंतनीयने चिंतवतो नथी,
त्यां सुधी ते जरा–मरण रहित स्थानने पामतो नथी.
११६. बधां पाप जीवना परिणाम वडे थाय छे; समस्त पुण्य पण परिणाम वडे ज
थाय छे; जिनशासनमां बंध अने मोक्ष परिणाम वडे ज कहेवामां आव्यां छे.
११७–११८. जिनवचनथी पराड्मुख जीव मिथ्यात्वथी तेमज कषाय–असंयम–योग
तथा अशुभलेश्याथी अशुभकर्मने बांधे छे; अने तेनाथी विपरीत
भावशुद्धिसम्पन्न जीव शुभकर्मने बांधे छे. आ रीते बे प्रकारनां कर्मोने जीव
बांधे छे तेनुं संक्षेपथी कथन कर्युं.
११९. ज्ञानावरणादि आठ कर्मो वडे हुं अवरायेलो छुं, हवे तेने दग्ध करीने हुं अनंत
ज्ञानादि गुणचेतना प्रगट करुं छुं.
१२०. हे जीव! बीजा असत्प्रलापनुं शुं काम छे?–तुं अढार हजार शील, तथा चोराशी
लाख गुणगण,–ते सर्वेने प्रतिदिन भाव.
१२१. आर्त्त अने रौद्रध्यानने छोडीने, तुं धर्म अने शुक्लध्यानने ध्याव,–आ जीवे रौद्र
अने आर्त्तध्यान तो चिरकाळ सुधी ध्याव्या.
१२२. जे कोई ईन्द्रियसुखमां आकुळ एवा द्रव्यश्रमणो छे तेओ भववृक्षने छेदता नथी;
भावश्रमणो ध्यानरूपी कुहाडावडे भववृक्षने छेदे छे.
१२३. जेम गर्भगृहमां रहेलो दीपक