: १६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
पवननी बाधा वगर जले छे, तेम मुनिनां अंतरमां रागरूपी पवन वगरनो
उत्तम ध्यानदीपक प्रकाशे छे.
१२४. हे जीव! तुं पंचपरमेष्ठि–गुरुने ध्याव,–के जेओ चार मंगल–शरण तथा लोकोत्तमरूप
छे, नर–सुर अने नभचर वडे पूजित छे, आराधनाना नायक छे अने वीर छे.
१२५. विमल अने शीतळीभूत एवा ज्ञानमय जळने पामीने भव्य जीव शुद्ध भाववडे
व्याधि–जरा–मरण अने वेदनारूप दाहथी मुक्त थईने शिवरूप थाय छे.
१२६. जेम बीज बळी जतां पृथ्वी पर अंकुरा फूटता नथी तेम भावश्रमणोने कर्मबीज
बळी जतां भवरूपी अंकुरा फूटता नथी.
१२७. भावश्रमण तो सुखने पामे छे अने द्रव्यश्रमण दुःखने पामे छे;–आम बंनेनां
गुण–दोषने जाणीने हे जीव! तुं शुद्धभावथी संपन्न था.
१२८. भावश्रमणो तीर्थंकर–गणधरादिना अभ्युदयनी परंपरासहित सुखने पामे छे–
एम संक्षेपथी जिनदेवे कह्युं छे.
१२९. जेओ उत्तम दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे शुद्ध–भावसहित छे अने माया जेमने
अत्यंत नष्ट थई गई छे ते श्रमणो धन्य छे, तेमने सदा त्रिविधे नमस्कार हो.
१३०–१३१. जेणे जिनभावना भावी छे ते धीरपुरुषो, किंनर–किंपुरुष आदि देवोए के
विद्याधरोए विक्रिया करेली अतूल ऋद्धि वडे पण मोहित थता नथी.
–तोपछी, उज्वलचित्तवाळा जे मुनिधवल परमसुखरूप मोक्षने जाणे छे–
देखे छे अने चिंतवे छे तेओ, देव–मनुष्यना अल्पसारवाळा (असारतूच्छ)
सुखोमां मोहित केम थाय?
१३२. ज्यां सुधी वृद्धावस्था आक्रमण न करे, तथा रोगरूपी अग्नि ज्यां सुधीमां आ
देहकूटिरने दग्ध न करे अने ईन्द्रियबळ क्षीण न थई जाय त्यां सुधीमां हे जीव!
तुं आत्महित करी ले.
१३३. हे मुनिवर! मन–वचन–कायना योगथी नित्य छ–जीवकायनी दया करो तथा
(पापनां) छ स्थानोने परिहरो, अने अपूर्व महासत्त्वने भावो.
१३४. हे जीव! अनंत भवसागरमां भमतां भोग–सुखने माटे तें सकल जीवोना
दशविध प्राणनुं त्रिविधे भक्षण कर्युं.
१३५. हे महाजश! एवा प्राणीवधथी तुं चोराशीलाख योनिमध्ये उपजतो–मरतो
निरंतर दुःखने पाम्यो.
१३६. हे मुनि! कल्याणसुखनी परंपरा माटे त्रिविध शुद्धिथी प्राणी–भूत–सत्त्व सर्वे
जीवोने अभयदान द्यो.