: श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : १७ :
१३७. एकसो एंसी क्रियावादी, चोराशी अक्रियावादी, सडसठ अज्ञानवादी अने बत्रीस
विनयवादी–ए प्रमाणे कुल ३६३ एकांतवादी मिथ्यामतो छे, तेनुं सेवन छोड.
१३८. जेम गळ्युं दूध पीवा छतां सर्पो निर्विष थता नथी, तेम जिनधर्मने सारी रीते
सांभळवां छतां पण अभव्य जीव तेनी प्रकृतिने छोडतो नथी.
१३९. मिथ्यात्वथी जेनी द्रष्टि बीडाई गई छे ने दुर्मतना सेवनरूप दोषथी जे दुबुद्धि
छे, एवो अभव्यजीव जिनप्रज्ञप्त धर्मनी रुचि करतो नथी.
१४०. जे कुत्सित एटले के निंद्य एवा मिथ्याधर्ममां रत छे, कुत्सित पाखंडीजीवोनी
भक्तिमां जोडायेलो छे अने कुत्सिततप करे छे, ते जीव कुत्सित एवी हलकी
गतिने पामे छे.
१४१. आ प्रमाणे मिथ्यात्वथी भरेला कुनय अने कुशास्त्रोमां मोहित जीव
अनादिकाळथी संसारमां भम्यो,–तेनो हे धीर! तुं विचार कर.
१४२. हे जीव! ३६३ प्रकारनां पाखंडीमतरूप उन्मार्गने छोडीने तारा मनने
जिनमार्गमां एकाग्र कर; बीजा असत् प्रलापनुं शुं काम छे?
१४३. जीवरहित शरीर ते शब छे, अने जे दर्शनरहित छे ते चल–शब (चालतुं कलेवर)
छे, लोकमां तो शब अपूज्य छे, अने लोकोत्तर मार्गमां चल–शब अपूज्य छे.
१४४. जेम समस्त ताराओमां चंद्र मुख्य छे, अने समस्त वनचरोमां मृगराज
(–सिंह) मुख्य छे, तेम ऋषि अने श्रावक–ए बंने प्रकारनां धर्मोमां सम्यक्त्व मुख्य छे.
१४५. जेम फणिराज फेणमां रहेला मणिमाणेकना किरणोथी प्रकाशतो थको शोभे छे,
तेम विमल दर्शनधारक जीव जिनभक्ति–प्रवचन सहित शोभे छे.
१४६. तप अने व्रतथी निर्मळ एवुं दर्शनविशुद्धिसहितनुं जिनलिंग, निर्मळ
गगनमंडळमां तारागण सहित चंद्रबिंबनी जेम शोभे छे.
१४७. एम गुण–दोषने जाणीने, हे जीव! दर्शनरत्नने तुं भावथी धारण कर;
गुणरत्नोमां ते सार छे अने मोक्षनुं प्रथम सोपान छे.
१४८. जीव कर्ता, भोक्ता, अमूर्त, शरीरप्रमाण, अनादिनिधन अने दर्शनज्ञान
उपयोगरूप छे–एम जिनवरेन्द्रो वडे निर्दिष्ट छे.
१४९–१५०. सम्यक् जिनभावनायुक्त भव्यजीव दर्शनावरण–ज्ञानावरण–मोहनीय ने
अंतरायकर्मने खपावे छे.