श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : १९ :
शिवरूप, अजर–अमर चिह्नवाळा, अनुपम, उत्तम, परम, विमल अने अतुल
एवा श्रेष्ठ सिद्धिसुखने पाम्या.
१६३. त्रणभुवनथी पूज्य शुद्ध, निरंजन अने नित्य एवा ते सिद्ध भगवंतो मने
दर्शनमां ज्ञानमां अने चारित्रमां उत्तम भावशुद्धिनुं वरदान द्यो.
१६४. अधिक शुं कहेवुं?–धर्म–अर्थ–काम–मोक्ष तेमज अन्य पण जे कोई व्यापार छे ते
सर्वे जीवना भावमां परिस्थित छे.
१६प. ए प्रमाणे सर्वबुद्ध एवा सर्वज्ञदेवे उपदेशेला आ भावप्राभृतने जे सम्यक्पणे
पढशे–सुणशे भावशे ते अविचल स्थानने पामशे.
[पांचमुं भावप्राभृत पूर्ण]
सर्वज्ञदेशित भावप्राभृत आ अहो! सुभावथी–
जे पढे–सुणशे–भावशे ते स्थान अविचल पामशे.
वाह, वीतरागमार्ग!
चैतन्यना परम सुखनो आ
वीतरागमार्ग, जगतना बधा जीवसमूहने हाथमां
आवी जाय एवो नथी, ए तो कोई विरल जीवने
ज हाथ आवे तेवो छे. परसन्मुख एकाग्रताथी
खसीने जे स्वसन्मुख एकता करे छे तेने आ
मार्ग हाथ आवे छे, ने परम सुखना अनुभवथी
ते न्याल थई जाय छे.
रे जीव! आवा मार्गनी प्राप्तिनो अवसर
तने मळ्यो छे. परम उत्साहथी तुं तेने प्राप्त कर.
तेने प्राप्त करतां ज (अनुभवमां लेतां ज)
आत्मामां परम चैतन्य–आनंदना हीलोळा
उल्लसे छे.