: २० : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
वीतरागी संतोए प्रकाशेलुं वस्तुस्वरूप
आ प्रवचनमां गुरुदेवे स्पष्ट कर्युं छे.
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गुरुदेवे एक बाळकने पूछ्युं–आत्मा केवो छे? ते बाळक कहे: आत्मा नित्य छे.
गुरुदेवे तेने समजावतां कह्युं के एकलो नित्य नहि, पण नित्य–अनित्य बंने
स्वरूप आत्मा छे.
बौद्धमतनी जेम आत्मा सर्वथा अनित्य नथी, के वेदांतमतनी जेम आत्मा
सर्वथा नित्य नथी, आत्मा नित्य–अनित्यस्वरूप वस्तु छे.
पर्यायने छोडीने नहि पण पर्यायने गौण करीने आत्मानी ओळखाण थाय छे.
एकांत नित्य के एकांत अनित्य आत्मा मानवो ते तो बंने भ्रम छे. नित्यपणुं एक धर्म
छे. अनित्यपणुं पण एक धर्म छे. अनित्य एवी पर्याय वडे आखा आत्मानो निर्णय
थाय छे. पर्याय वगर निर्णय करे कोण? अने नित्य टकती वस्तु वगर पर्यायनुं
परिणमन थाय कोना आधारे? आम द्रव्य–पर्यायस्वरूप आत्मा ते नित्य–
अनित्यस्वरूप छे, तेमांथी एकने पण कांढी नांखे तो साचा आत्मानो निर्णय थई शकशे
नहीं.
स्वसन्मुख थईने चैतन्यधन वस्तुनो निर्णय करवो ते अपूर्व छे, नित्य–अनित्य
वस्तुने बराबर ज्ञानमां लईने तेने स्व–विषय बनावे त्यारे अपूर्व ज्ञान–आनंद प्रगटे
छे; एकला शास्त्र सांभळीने धारी ल्ये के आत्मा नित्य–अनित्य अनेकांतस्वरूप छे,–पण
एटली धारणाथी कांई ज्ञानपरिणति प्रगटे नहीं; एवी परसन्मुख धारणा तो जीवे
अनंतवार करी. पण स्वसन्मुख थईने निर्णय करे के आ अपेक्षाए हुं नित्य छुं ने आ
अपेक्षाए हुं अनित्य