: २४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
स्वभावना महिमानी
मधुरी प्रसादी
समयसार गा. ३२० (जयसेनस्वामीनी टीका) उपर
ताजेतरमां चोथीवार प्रवचन चाले छे; स्वभावना कोई अपूर्व
उल्लासपूर्वक तेना महिमाने गुरुदेव घूंटीघूंटीने समजावी रह्या छे.
* स्वयंभूरमण समुद्र जेम पोते पोतामां डोले छे तेम आनंदनो नाथ एवो
अमृतनो सागर आत्मा पोते पोतामां डोले छे. वाह! अंदरथी आनंदना दरिया
ऊछळ्या छे. प्रभु! तुं केवो मोटो चैतन्यसमुद्र छो!–ने तुं क्यां रोकाई गयो?
मोटा ध्रुवतत्त्वने भूलीने एक क्षणिक अंशमां तुं आखुं मानीने अटकी गयो. आ
संतो तने तारी आखी वस्तु समजावे छे.
* अज्ञानीनी श्रद्धा ते तो अवस्तुनी श्रद्धा छे एटले के मिथ्याश्रद्धा छे.
* क्षायिकज्ञानमां जेम रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी, तेम साधकधर्मीनी द्रष्टिमां
पण रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. त्रिकाळ शुद्ध–वस्तु पूर्ण छे ते ज शुद्ध
द्रष्टिनो विषय छे. मिथ्याद्रष्टिनी द्रष्टिनो कोई विषय ज खरेखर नथी,–ते तो
क्षणिक रागादि पर्याय जेटलो ज, के कर्मना संबंध जेटलो ज आत्मा माने छे,
पण एवी आत्मवस्तु तो छे नहीं, तेथी ‘अवस्तु’ नी ते श्रद्धा करे छे एटले ते
श्रद्धा मिथ्या छे. (अज्ञानीना मिथ्याज्ञानअनुसार जगतमां कोई वस्तु नथी,
माटे तेनुं ज्ञान मिथ्या छे ए वात बंधअधिकारमां करी छे.)
* सम्यग्द्रष्टिनी श्रद्धानो विषय ‘सत्’ छे, शुद्ध वस्तु जेवी छे तेवी ते श्रद्धामां
ल्ये छे.
* शुद्धज्ञान रागने करे? शुद्धज्ञान कर्मने करे?–ना; ते रागने के कर्मने करतुं नथी,
भोगवतुं नथी, जाणे ज छे, जाणवारूप ज परिणमे छे.
* द्रव्यस्वभाव अनंत सामर्थ्यथी भरपूर छे. तेमां जेनी द्रष्टि छे, एवी
शुद्धद्रष्टिरूपे–शुद्धज्ञानरूपे परिणमेलो जीव, तेनी आ वात छे.
सम्यग्दर्शन–पर्याय द्रव्य साथे अभेद थई गई. पहेलां परसन्मुख एकता
हती, ते स्वसन्मुख एकतारूप थई; पर्याय रागादि साथे अभेद हती तेने