मस्तीनी वात छे. आत्मा ध्रुवस्वभावमां अभेद थईने परिणम्यो त्यां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंदरूप परिणति प्रगट थई.
थयो के ध्रुवस्वभावमां अभेदद्रष्टिथी तेने रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं छूटी गयुं
छे. एकली पर्यायने ज ते नथी देखतो. पहेलां रागादि साथे अभेदपणे
परिणमतो ते मिथ्यात्व हतुं, ते छूटी गयुं, ने स्वभावमां अभेद परिणतिथी
सम्यक्त्वादिरूप ते परिणम्यो.
उपशमादि भावने पण शुद्धज्ञानपरिणति के शुद्धोपयोग वगेरे कहेवाय छे.
शुद्धोपयोगपूर्वक उपशमादि भाव प्रगटे छे. उपशमभावरूप धर्मनी शरूआत
शुद्धोपयोग वडे ज थाय छे.
हतुं ते पर्यायमां परिणम्युं. ते शुद्धपर्यायरूप परिणमेलो जीव रागादिनो कर्ता–
भोक्ता नथी. शुद्धपरिणति दोषने केम उत्पन्न करे? ने तेने ते केम भोगवे?
पर्याय तरफ पण नहि, पण अंदर सत स्वभाव छे तेमां लक्ष करे तो आ
समजाय तेवुं छे. सिद्ध जेवा पोताना सत्स्वभावथी आत्मा एक क्षण पण
भिन्न नथी; एवा पोताना आत्माने लक्षमां लईने अनुभव करवानी आ वात छे.
रागादिनी क्रियाना कर्ता पण नथी ने भोक्ता पण नथी. सर्वज्ञपद आत्माना
स्वभावमां भर्युं छे, तेमां एकाग्रतावडे ते पर्यायमां प्रगटे छे. आत्मानी
शक्तिमां केवळज्ञान न होय तो पर्यायमां आवे क्यांथी? परम–ज्ञानस्वभावी
आत्मा छे.
अंदरना स्वरूपनी अपूर्व वात छे. आवी द्रष्टि प्रगट करीने जे जीव आनंद–