Atmadharma magazine - Ank 322
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
आवो ज्ञान अने सुखस्वरूप आत्मा, ते दुःखनो वेदनार नथी. ज्ञानस्वभाव छे
ते अमृतकुंभ छे, ने रागादि परभावो विषरूप छे–दुःखरूप छे. जेम एक वस्तुमां बीजी
वस्तु नथी, स्वमां पर नथी, तेम सुखस्वरूप आत्मामां दुःखनुं वेदन नथी. आत्माना
सुखस्वभावथी दुःखभाव जुदो छे.
ज्ञायकभाव ते आत्मा छे; ज्ञायकभाव कदी शुभाशुभ रागरूप थयो नथी. जीवे
अज्ञानथी नरकादिनां दुःख अनंतवार वेद्यां, छतां ज्ञायक स्वभाव तो कांई दुःखना
वेदनरूप थयो नथी. नरकमां बहारना संयोगथी जुओ तो घडी पण शांति नथी, पण
स्वभावथी जुओ तो त्यां त्रिकाळी शांतिनो भंडार आत्मामां भर्यो छे. तेनी द्रष्टिथी त्यां
पण सम्यक्त्व पमाय छे ने अपूर्व शांति वेदाय छे. दुःख तो उदयभाव छे,
पारिणामिकभावमां शांतिनो अखूट भंडार छे, तेमां जराय दुःख नथी. आवा मारा
स्वभावमां सर्वज्ञता ने पूर्णानंद भरपूर छे–एम ज्यां स्वतत्त्व प्रतीतमां लीधुं त्यां
सर्वज्ञतानुं साधन शरू थयुं. हवे अल्पकाळमां ज सर्वज्ञता प्रगट थशे, थशे ने थशे. आनुं
नाम अमृत छे, मोक्षना मार्गने अमृतमार्ग कह्यो छे; एटले संसारना कारणरूप रागादि
भावो ते झेर छे.
स्वभाव तरफथी जुओ तो आत्मा एकान्त शुद्ध छे, अशुद्धता तेमां नथी; आवा
एकांतशुद्ध स्वभावपणे आत्मानो अनुभव ते पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षनुं कारण छे;
शुभराग वगेरे एकांत अशुद्ध छे, तेनो अनुभव मोक्षनुं कारण नथी.
भाई, तारी आवी शुद्ध वस्तुनी आस्था लाव...आवो ज हुं छुं, एम निःशंक
थईने आत्माना अस्तित्वने लक्षमां ले. आ तो वीरमार्ग छे, वीरोनो आ मार्ग छे...ते
अफरगामी छे. एकवार अंदरथी स्वभावनुं जोर लाव......पोतानो भरोसो कर. तारामां
पामरता नथी, तारामां प्रभुता छे; ते प्रभुतानो विश्वास करीने अंतरमां अनुभव कर.
‘न थई शके’ ए भाव छोडी दे. पोताना ज अस्तित्वनी प्रतीत पोताने न थाय ए केवी
वात! ताराथी थई शके तेवी आ वात छे. तारा जेवा अनंता जीवो जे करीने मोक्ष
पाम्या, ते ज आ वात छे, ने ताराथी थई शके तेवी छे. ते माटे अंदर पात्र थईने
प्रयत्न करवो जोईए. एक क्षणमां अंदर ऊतरीने अनुभव थई शके एवी वस्तु छे.
–रात्रिचर्चामांथी.