: ६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
५. भाव प्राभृत
भगवान श्री कुंदकुंदस्वामी–रचित अष्टप्राभृतमांथी पांचमा भाव
प्राभृतनी मूळ गाथाना अर्थ अहीं आप्या छे. शरूआतना चार प्राभृत
(दर्शनप्राभृत, सूत्रप्राभृत, चारित्रप्राभृत अने बोधप्राभृत) गतांकमां
आप्यां हतां.
आ भावप्राभृत घणुं सुंदर छे. वेराग्यभीनी शैलिथी भावशुद्धिनो
सुंदर उपदेश १६प गाथाओ द्वारा आचार्यदेवे आ प्राभृतमां आप्यो छे,
अने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप भावशुद्धिने आराधवानी वारंवार उत्तम
प्रेरणा करी छे. अत्यंतप्रिय एवुं आ प्राभृत आत्मधर्म मां आपवानी घणा
वखतथी भावना हती, ते आ अंकमां पूरी थाय छे. भावप्राभृत उपरनां
केटलांक सुंदर प्रवचनो अगाउ आत्मधर्ममां तेमज सुवर्णसन्देशमां आवेलां
छे; तदुपरांत फरीने पण गुरुदेवनां श्रीमुखथी सांभळवा मळे छे. आ
भावप्राभृत द्वारा आचार्यदेवे आपणने सम्यक्त्वादि शुद्धभावनी ज भेट
आपी छे,–एम समजीने भावथी तेनो उद्यम कर्तव्य छे. बाकीनां त्रण
प्राभृत आगामी अंकमां आपीशुं. – ब्र. ह. जैन
१. नरेन्द्र, सुरेन्द्र अने भवनेन्द्रथी वंदित जिनवरेन्द्रोने सिद्धोने तथा बाकीनां
संयतोने मस्तक वडे नमस्कार करीने हुं भावप्राभृत कहीश.
२. हे जीव! भाव ते ज प्रथम लिंग छे, द्रव्यलिंगने तुं परमार्थरूप न जाण, जीवने
गुण–दोषोनुं कारण भाव ज छे एम जिनभगवंतो कहे छे.
३. भावविशुद्धि अर्थे बाह्य परिग्रहनो त्याग करवामां आवे छे; जे अभ्यंतर
परिग्रहसहित छे तेने बाह्यत्याग निष्फळ छे.
४. भावरहित जीव हाथ लटकता राखीने अने वस्त्र छोडीने अनेक क्रीडाक्रोडी जन्मो
सुधी तपश्चरण करे तोपण सिद्धिने पामतो नथी.
५. कोई जीव बाह्यपरिग्रहने छोडे छे पण जो परिणाम अशुद्ध छे, तो भावशुद्धी
वगरना ते जीवने बाह्यपरिग्रहनो त्याग शुं करशे?