: ८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९६
६. मोक्ष प्राभृत
(भगवानश्री कुंदकुंदस्वामीरचित अष्टप्राभृतनी मूळगाथाना
आ अर्थ छे. अगाउ दर्शनप्राभृत–सूत्रप्राभृत–चारित्रप्राभृत–
बोधप्राभृत ए चार प्राभृतनां अर्थ अंक ३२१मां, तथा पांचमा
भावप्राभृतनां अर्थ अंक ३२२ मां आवी गयेल छे; भावप्राभृतना
वैराग्यप्रेरक भावो वांचीने अनेक जिज्ञासुओए प्रसन्नता व्यक्त करी
छे. छठ्ठुं मोक्षप्राभृत जेनी १०६ गाथा छे तेना अर्थो अहीं आपवामां
आव्यां छे. अंतिम बे प्राभृत (लिंगप्राभृत तथा शीलप्राभृत)
आवता अंके आपीने अष्टपाहुड समाप्त करीशुं.)
१. कर्मोने खेरवीने तथा परद्रव्यने छोडीने, जेमणे ज्ञानमय आत्मा उपलब्ध
कर्यो छे, ते देवने नमस्कार हो, नमस्कार हो.
२. ए रीते, उत्कृष्ट अनंत ज्ञान–दर्शनमय अने शुद्ध एवा ते देवने नमस्कार
करीने, परम योगीओने माटे परमपदरूप परमात्मानुं कथन करीश.
३. योगमां स्थित योगी जेने जाणीने, तथा अनवरतपणे देखीने–ध्यावीने
अव्याबाध अनंत–अनुपम–निर्वाणने पामे छे.
४. –ते आत्मा त्रण प्रकारनो छे–परम आत्मा, अंर्तआत्मा अने बहिरात्मा.
तेमां अंतरात्मारूप उपायवडे परमात्माने ध्यावो अने बहिरात्माने छोडो.
प. ईन्द्रियोमां आत्मसंकल्प करे ते बहिरात्मा छे; आत्मामां ज आत्मसंकल्प करे ते
अंतरात्मा छे; अने कर्म–कलंकथी सर्वथा मुक्त ते परमात्मा छे, तेमने ज देव कहेवाय छे.
६. मलरहित, शरीररहित, ईन्द्रियरहित, केवळ, विशुद्धात्मा, परमेष्ठी, परमजिन,
शिवंकर अने शाश्वत एवा सिद्ध परमात्मा छे.
७. त्रिविधपणे बहिरात्माने छोडीने, अंतरात्मामां आरूढ थईने परमात्माने
ध्याववा योग्य छे, एम जिनवरदेवोए उपदेश्युं छे.
८. जे मूढद्रष्टि एटले के बहिरात्मा छे तेनुं मन ईन्द्रिय द्वारा बाह्य पदार्थोना
ग्रहणमां तत्पर छे, ते निजस्वरूपथी