: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : ९ :
च्युत छे अने निजदेहने ज आत्मा माने छे.
९. ते बहिरात्मा, पोताना देहनी जेम बीजाना शरीरने देखीने, ते अचेतन
होवा छतां प्रयत्नथी तेने पण परमभावे (एटले के आत्मारूपे) ग्रहण करीने ध्यावे छे.
१०. ए रीते आत्मस्वरूपना अजाण एवा मनुष्यो, स्वना तेमज परना
शरीरमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान करे छे अने तेथी स्त्री–पुत्रादि प्रत्ये तेमने मोहनी
वृद्धि थाय छे.
११. जे मिथ्याज्ञानमां रत छे अने जेणे मिथ्याभावोने भाव्या छे एवो ते
मनुष्य (बहिरात्मा जीव) मोहना उदयथी फरी फरीने पण शरीरने पोतानुं माने छे.
१२. जे देहथी निरपेक्ष छे, निर्द्वन्द छे, निर्मम छे, निरारंभ छे अने
आत्मस्वभावमां अत्यंत रत छे, ते योगी निर्वाणने पामे छे.
१३. परद्रव्यमां रत जीव विविध कर्मोथी बंधाय छे अने विरक्त जीव तेनाथी
मुक्त थाय छे;–आ प्रमाणे संक्षेपथी बंध अने मोक्षना कारणनो जिनोपदेश छे.
१४–१प. स्वद्रव्यमां रत श्रमण नियमथी सम्यग्द्रष्टि छे, ते प्रशंसनीय छे, अने
सम्यक्त्व–परिणत ते जीव दुष्ट–अष्ट कर्मोनो क्षय करे छे.
–पण जे श्रमण परद्रव्यमां रत छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, अने मिथ्यात्वरूप
परिणमतो थको ते अष्टदुष्टकर्मोथी बंधाय छे.
१६. परद्रव्यमां रतिथी दुर्गति थाय छे अने स्वद्रव्यमां रतिथी सुगति थाय छे;–
आम जाणीने हे जीव! तुं स्वद्रव्यमां रति कर, अने अन्यद्रव्योथी विरत था.
१७–१८. आत्मस्वभावथी अन्य जे कोई सचित्त, अचित्त के मिश्रित वस्तु छे ते
परद्रव्य छे,–एवुं सत्यस्वरूप सर्वदर्शी भगवंतोए कह्युं छे.
जे अष्ट–दुष्टकर्मोथी रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य अने शुद्ध एवो आत्मा
ते स्वद्रव्य छे,–एम जिनभगवंतोए कह्युं छे.
१९. जेओ स्वद्रव्यने ध्यावे छे अने परद्रव्यथी पराड–मुख छे ते उत्तम चरित्रवंत
जीवो, जिनवरोना मार्गमां अनुलग्न छे अने निर्वाणने पामे छे.
२०–२१–२२. योगीओ जिनवरमत–अनुसार शुद्धआत्माने ध्यानमां ध्यावे छे
अने तेना वडे निर्वाणने पामे छे; जेना वडे निर्वाणने पामे तेना वडे सुरलोक केम न
पमाय?
जे जीव घणा भार सहित एक