Atmadharma magazine - Ank 323
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : ११ :
केवळज्ञानरूप एवो आत्मा जिनवरदेवे कह्यो छे, तेने हे भव्य! तुं जाण.
३६. जे योगी जिनवरमत–अनुसार रत्नत्रयने आराधे छे ते पोताना आत्माने
ध्यावे छे अने परद्रव्यने परिहरे छे–एमां संदेह नथी.
३७. जे जाणे छे ते ज्ञान छे; जे देखे छे ते दर्शन जाणवुं; अने पुण्य–पापनो
परिहार ते चारित्र कहेवामां आव्युं छे.
३८. तत्त्वरुचि ते सम्यक्त्व छे, तत्त्वनुं ग्रहण ते सम्यग्ज्ञान छे, अने पुण्य–
पापनो परिहार ते चारित्र छे–एम जिनवरेन्द्रे कह्युं छे.
३९. दर्शनथी जे शुद्ध छे ते शुद्ध छे; दर्शनशुद्धिवाळो जीव निर्वाणने प्राप्त करे छे.
दर्शनविहीन पुरुष ते ईष्ट लाभने पामतो नथी.
४०. जन्म–मरणनुं हरण करनार. अने सारभूत एवा आ उपदेशने जे
यथार्थपणे माने छे ते श्रमणोने तेम ज श्रावकोने पण सम्यक्त्व कह्युं छे.
४१. योगीओ जिनवरमतअनुसार जीवाजीवविभक्तिने (एटले के जीव–
अजीवनी भिन्नताने) जाणे छे. तेने सर्वदर्शी भगवंतो यथार्थ सम्यग्ज्ञान कहे छे.
४२. जेने (–जीवाजीवविभक्तिने) जाणीने योगीओ पुण्य–पापनो परिहार करे
छे ते चारित्र छे एम सर्वज्ञदेवे कह्युं छे, ते चारित्र विकल्प वगरनुं छे अने कर्मरहित
एवा मोक्षनुं कारण छे.
४३. जे रत्नत्रययुक्त संयमी–मुनि–स्वशक्ति प्रमाणे तप करे छे ते आत्माने
शुद्धपणे ध्यावता थका परमपदने प्राप्त करे छे.
४४. ते त्रणने (रत्नत्रयने) त्रिविधे धारण करीने, त्रणथी रहित अने त्रणथी
परिमंडित एवा योगी, द्विविध दोषरहित परम आत्माने ध्यावे छे.
४प. जे जीव मद–माया–क्रोधथी रहित छे, तेम ज लोभथी पण रहित छे अने
निर्मल–स्वभावथी युक्त छे ते उत्तम सुखने पामे छे.
४६. जेनुं मन विषय–कषायोथी युक्त छे, रूद्रपरिणामी छे, अने
परमात्मभावनाथी रहित छे, एवो जिनमुद्राथी विमुख जीव सिद्धिसुखने पामतो नथी.
४७. जिनवरउपदिष्ट जिनमुद्रावडे नियमथी सिद्धिसुख थाय छे. एवी जिनमुद्रा
स्वप्नमां पण जेने नथी रुचती ते जीवो भवसमुद्रमां ज डुबे छे.
४८. जिनवरेन्द्रे उपदेशेला परम–आत्माने ध्यावता थका योगी लोभादि मलिन
भावोथी मुक्त थाय छे अने तेमने नवां कर्मोनो आस्रव थतो नथी.
४९. जेनी मति द्रढसम्यक्त्व वडे भावित छे–निर्मळ छे एवा योगी द्रढचारित्र–