Atmadharma magazine - Ank 323
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 44

background image
: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : १३ :
विनाश पामी जाय छे, माटे हे योगी! तमे यथाशक्ति कष्टपूर्वक आत्माने भावो.
६३. आहार आसन अने निद्राने जीतीने, जिनवरमतअनुसार गुरुप्रसादथी
निजात्मानुं स्वरूप जाणीने तेनुं ध्यान करवुं.
६४. आत्मा चारित्रवंत छे, अने आत्मा दर्शन–ज्ञानथी संयुक्त छे;–ते
गुरुप्रसादथी जाणीने नित्य ध्यातव्य छे.
६प. प्रथम तो, दुष्करपणे आत्मानुं ज्ञान थाय छे; आत्माने जाणीने पछी तेनी
भावना करवी ते दुष्कर छे, अने स्वभावनी भावना भावी होवा छतां जीवने विषयोथी
विरक्त थवुं ते दुष्कर छे.
६६. जीव ज्यां सुधी विषयोमां प्रवर्ते छे त्यां सुधी ते आत्माने जाणी शक्तो
नथी; जेमनुं चित्त विषयोथी विरक्त छे एवा योगी आत्माने जाणे छे.
६७–६८. आत्माने जाणीने पण, विषयोमां विमोहित एवा कोई मूढ जीवो
स्वभावभावथी अत्यंत भ्रष्ट थईने चारगतिरूप संसारमां रखडे छे.
–अने जेओ विषयोथी विरक्त थई, आत्माने जाणीने तेनी भावनासहित छे
एवा तपोगुणयुक्त मुनिवरो चारगतिरूप संसारने छोडे छे,–एमां संदेह नथी.
६९. जेने मोहथी परद्रव्यमां परमाणुमात्र पण रति थाय छे ते मूढ छे, अज्ञानी
छे अने आत्मस्वभावथी विपरीत छे.
७०. जेओ दर्शनशुद्धी सहित छे, द्रढचारित्रवंत छे, आत्माने ध्यावे छे, अने
विषयोथी विरक्तचित्त छे, एवा जीवोने ध्रुवपणे निर्वाण थाय छे.
७१. केमके, परद्रव्यमां राग ते संसारनुं ज कारण छे, माटे योगीजनो सदाय
आत्मामां ज भावना करो.
७२. निंदामां के प्रशंसामां, दुःखमां के सुखमां, शत्रुमां के बंधुमां,–सर्वत्र समभाव
वडे चारित्र होय छे.
७३. जेओ मुनिचर्यारूप वृत्तिथी तथा व्रत समितिथी रहित छे, अने शुद्धभावथी
तद्न भ्रष्ट छे, एवा कोई मनुष्यो कहे छे के अत्यारे ध्यानयोगनो आ काळ नथी.
७४. सम्यक्त्व–ज्ञानथी रहित तथा मोक्षथी परांग्मुखअने संसारसुखमां अत्यंत
आसक्त एवो अभव्य कहे छे के अत्यारे ध्याननो आ काळ नथी.
७प. पांच महाव्रत, पांच समिति ने त्रण गुप्ति–तेना विषे जे मूढ छे–अज्ञानी छे
ते कहे छे के अत्यारे ध्याननो आ काळ नथी.
७६. भरतक्षेत्रमां आ दुःषमकाळमां पण आत्मस्वभावमां स्थित साधुने धर्म–