: १४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९६
ध्यान होय छे. तेने जे नथी मानतो ते पण अज्ञानी छे.
७७. अत्यारे पण त्रिरत्न वडे शुद्ध एवा साधुओ आत्माने ध्यावीने ईन्द्रपणुं
तथा लोकांतिकदेवपणुं पामे छे, अने पछी त्यांथी च्यवीने निर्वाण पामे छे.
७८. पापथी मोहित मतिवाळा जेओ मुनिलिंगने धारण करीने पण पाप करे छे
ते पापी जीवो मोक्षमार्गथी च्युत छे.
७९. जेओ पंचविध वस्त्रमां आसक्त छे, परिग्रहरूप ग्रंथने ग्रहण करनारा छे.
याचनाशील छे अने अधःकर्ममां रत छे तेओ मोक्षमार्गमांथी च्युत छे.
८०. जेओ निर्ग्रंथ छे, मोहरहित छे, बावीस परीषहने सहनारा छे, कषायने
जीतनारा छे अने पापारंभथी मुक्त छे–तेओने मोक्षमार्गमां स्वीकारवामां आव्या छे.
(अर्थात् तेओए मोक्षमार्गने ग्रहण कर्यो छे.)
८१. जेओ देव–गुरुना भक्त छे, निर्वेदनी परंपरानुं विशेष चिंतन करनारा छे,
ध्यानमां रत छे अने उत्तम चारित्रवंत छे–तेओने मोक्षमार्गमां स्वीकारवामां आव्या छे.
८२. ऊर्ध्व–मध्य–अधोलोकमां कंई पण मारुं नथी, हुं एकाकी छुं–आवी भावना
वडे योगीओ शाश्वत सुखस्थानने प्राप्त करे छे.
८३. ए रीते निश्चयनयथी आत्मानुं स्वरूप जाणीने, जे आत्मा आत्माने माटे
आत्मामां ज अतिशय रत छे ते प्रगटपणे सम्यक् चारित्र छे; अने एवा चारित्रवंत
योगी निर्वाणने पामे छे.
८४. पुरुषाकार, योगी अने उत्तम ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण–एवा आत्माने जे
ध्यावे छे ते योगी पापने हरनारा छे अने निर्द्वंद्व थाय छे.
८प. आ प्रमाणे जिनवरकथित श्रमणधर्मनो उपदेश कह्यो; हवे श्रावकधर्मनो
उपदेश सांभळो,–के जे संसारनो विनाश करनार छे अने सिद्धपदनी प्राप्तिनुं परम
कारण छे.
८६. हे श्रावक! अत्यंत निर्मळ अने मेरुगिरि जेवा निष्कंप सम्यक्त्वने ग्रहण
करीने, दुःखना क्षयने अर्थे तेने ध्यानमां ध्यावो.
८७. सम्यक्त्वने जे ध्यावे छे ते जीव सम्यकद्रष्टि छे, अने सम्यक्त्वपरिणत ते
जीव अष्ट– दुष्टकर्मोनो क्षय करे छे.
८८. बहु कहेवाथी शुं?–जे उत्तम पुरुषो गतकाळमां सिद्ध थया छे अने
भविष्यमां जे कोई भव्यो सिद्धिने पामशे, ते सम्यक्त्वनुं ज माहात्म्य छे–एम जाणो.
८९. जे मनुष्ये सिद्धिकर एवा सम्यक्त्वने