Atmadharma magazine - Ank 323
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : १प :
स्वप्नमां पण मलिन कर्यु नथी ते धन्य छे, ते सुकृतार्थ छे, ते शूर छे, अने ते ज पंडित
छे.
९०. हिंसारहित धर्म, अढार दोषरहित देव, निर्ग्रंथ साधु तथा निर्ग्रंथ प्रवचन–
तेमनुं श्रद्धान ते सम्यक्त्व छे.
९१. यथाजातरूप जेनुं रूप छे, जे सम्यक् संयम सहित छे, सर्वसंगनो जेमां
परित्याग छे अने परनी अपेक्षा जेने नथी–एवा मुनिलिंगने जे माने छे तेने सम्यक्त्व
छे.
९२. लज्जाथी, भयथी के मोटाईथी जे कुत्सित देवने, कुत्सित धर्मने के कुत्सित
लिंगने वंदन करे छे ते प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.
९३. परनी अपेक्षा सहित लिंगने, रागीदेवने के असंयतने जे वंदे छे,–माने छे
ते प्रगट मिथ्याद्रष्टि छे; शुद्ध सम्यक्द्रष्टि तेने कदी वंदता के मानता नथी.
९४. सम्यग्द्रष्टि–श्रावक जिनवरदेवे उपदेशेला धर्मने करे छे; जे तेनाथी विपरीत
करे छे तेने मिथ्याद्रष्टि जाणवो.
९प. जे जीव मिथ्याद्रष्टि छे ते हजारो दुःखोथी व्याकुळ वर्ततो थको, जन्म–जरा–
मरणथी भरपूर एवा संसारमां सुखरहित संसरण करे छे.
९६. हे जीव! ए प्रमाणे सम्यक्त्वनां गुण अने मिथ्यात्वनां दोष तेने सर्वप्रकारे
मनमां चिंतव, अने जे तारा मनमां रुचे ते तुं कर.–अधिक प्रलापनुं शुं काम छे?
९७. जे निर्ग्रंथ बाह्यसंगथी तो विमुक्त छे पण मिथ्याभावथी मुक्त नथी, तेम
ज आत्माना समभावने जाणतो नथी, ते साधुने स्थान अने मौन शुं करे?
९८. जे साधु मूळगुणोने छेदीने बाह्यकर्म करे छे ते सिद्धिसुखने पामतो नथी, ते
तो नियमथी जिनलिंगनो विराधक छे.
९९. आत्मस्वभावथी जे विपरीत छे तेने बाह्यकर्मकांड शुं करशे? अनेकविध
क्षमण (उपवासादि) पण तेने शुं करशे? अने आतापन वगेरे तपश्चर्या पण तेने शुं
करशे? (अर्थात् तेनुं बधुं निष्फळ छे.)
१००. भले घणां श्रुतनुं पठन करे, अने बहुविध चारित्रने आचरे, पण
आत्माथी जे विपरीत छे तेने ते बधुंय बाल–श्रुत अने बाल–चरण छे.
१०१–१०२. जे साधु वैराग्यपरायण छे अने परद्रव्यथी परांग्मुख छे, ते
संसारसुखथी विरक्त छे अने स्वकीय शुद्धसुखमां अनुरक्त छे.
वळी, गुणगणथी विभूषित जेनुं अंग छे, हेय–उपादेयनो जेणे निश्चय