: १६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९६
कर्यो छे, अने ध्यान–अध्ययनमां जे लीन छे ते साधु उत्तम स्थानने पामे छे.
१०३. हे भव्य जीवो! नमस्कार करवा योग्य पुरुषो वडे पण जे निरंतर जे
नमाय छे, ध्याववा योग्य पुरुषो वडे पण जे निरंतर ध्यावाय छे, अने स्तुति करवा
योग्य पुरुषो वडे निरंतर जेनी स्तुति कराय छे,–एवुं जे कोई परम तत्त्व देहमां स्थित
छे तेने तमे जाणो.
१०४. अर्हंत–सिद्ध–आचार्य–उपाध्याय साधु–ए पांचे परमेष्ठी आत्मामां ज
स्थित छे, तेथी आत्मा ज खरेखर मारुं शरण छे.
१०प. सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र अने सम्यकतप–ए चारेय
आराधना आत्मामां ज स्थित छे, तेथी आत्मा ज खरेखर मारुं शरण छे.
१०६. आ रीते जिनप्रणीत मोक्ष अने तेनुं कारण आ मोक्षप्राभृतमां कह्युं, तेने
सुभक्तिपूर्वक, जे भव्य जीव पढशे–सांभळशे–भावशे ते शाश्वत सुखने पामशे.
(छठ्ठुं मोक्षप्राभृत पूर्ण)
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जिन प्रणीत छे आ मोक्षनुं प्राभृत, अहो! सुभक्तिथी–
जे पढे–सुणशे–भावशे ते सुख शाश्वत पामशे.
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–: भद्र :–
तारुं परमेश्वरपणुं तारामां छे एम संतो बतावे छे–तेनो विश्वासथी
स्वीकार कर. एकवार श्रीमद् राजचंद्रजीए कोई भरवाड लोकोमां
अनुकरणनी जिज्ञासाबुद्धि देखीने तेओने कह्युं के ‘भाईओ! आंखो मींची
जाओ, ने अंदर हुं परमेश्वर छुं–एम विचार करो.’ ते भरवाड भद्र हता,
तेमणे ए वातमां शंका के प्रतिकार न कर्यो, पण विश्वासथी एम विचार्युं के
आ कोई महात्मा छे ने अमने अमारा हितनी कंईक अपूर्व वात कहे छे,
जगतना जीवो करतां आमनी चेष्टा कंईक जुदी लागे छे. तेम हे भद्र! अहीं
कुंदकुंदस्वामी जेवा परमहितकारी सन्तो तने तारुं सिद्धपणुं बतावे छे, तो तुं
उल्लासथी तेनी हा पाड, ने हुं सिद्ध छुं–एम तारा आत्माने चिंतनमां ले.