: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : ३७ :
साचा देव–गुरु पासे
आवीने जीवे शुं करवुं?
सम्यक्त्व वडे आत्माना आनंदना
अनुभव विना तारुं दुःख मटशे नहीं.
जीवना कल्याणने माटे ज्ञानी उपदेश आपे छे के आत्म–हितना अभिलाषी
मुमुक्षु जीवो गृहीत–अगृहीत मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्रने छोडीने, अने शुद्ध
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अंगीकार करीने आत्मकल्याणना मार्गमां लागो;
पराश्रयभावरूप आ संसारमां भटकवानुं छोडो, मिथ्यात्वादि भावोनुं सेवन
छोडो......सावधान थईने आत्माने रत्नत्रय धर्मनी आराधनामां जोडो.
कुंदकुंदस्वामी नियमसारमां कहे छे के–
मिथ्यात्व–आदिक भाव रे! चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भावने भाव्या नथी पूर्वे जीवे. (९०)
अरे जीव! हवे एवा मिथ्यात्वादि दुःखदायी भावोने छोड, ने आत्माना
कल्याणना मार्गमां लागी जा. अरे, हुं तो देहथी ने रागथी भिन्न ज्ञानानंद स्वरूप छुं–
एम श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव करीने आत्महितमां लागी जा. भाई! आवुं मनुष्यपणुं
पामीने तें आत्माने मेळव्यो के नहीं? तारा आत्मानो उदय तें कर्यो के नहीं? के पारकी
चिन्तामां ज जीवन वीताव्युं? अरे, अत्यार सुधी आत्माने भूलीने मिथ्याभावोना
सेवन वडे पोते पोतानुं अहित कर्युं; अने तेमांय कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना सेवनथी तो
आत्मानुं घणुं ज अहित थयुं ने दुःख भोगव्युं. माटे हे जीव! तुं साचा देव–गुरु–धर्मने
ओळखीने सम्यक्त्वादि भावो प्रगट कर.–एम करवाथी तारुं परम हित थशे.
अरे, घणा जीवो तो एवा छे के भगवाने कहेला वीतराग विज्ञानने तो
ओळखता नथी, अने मूढताने लीधे एम समजे छे के अमे कंईक तत्त्वज्ञान करीए
छीए,–पण ऊल्टुं कुगुरुओना निमित्तथी विपरीत विचारमां ज शक्ति गुमावीने
मिथ्यात्वने पुष्ट करे छे. एवा जीवोने तो सम्यग्दर्शन वगेरेनी प्राप्तिनो अवकाश ज
नथी.