* आत्मानुं अस्तित्व *
(सोनगढमां पंचास्तिकायना प्रवचनमांथी)
आत्मानो स्वभाव एटले के आत्मानुं अस्तित्व ज्ञानथी रचायेलुं छे; आत्मानुं
अस्तित्व देहथी के रागथी रचायेलुं नथी.
ज्ञानथी आत्मानुं अस्तित्व छे एटले के ज्ञान साथे तेने एकरूपता छे; देह साथे
के पुण्य–पाप साथे आत्माने एकरूपता नथी, तेना वगर पण आत्मानुं अस्तित्व टकी
रहे छे.
ज्ञान ते आत्मा छे–एम लक्षमां लईने एकाग्र थतां आत्मामां एकाग्र थवाय छे,
केमके आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. परंतु देह ते आत्मा, के राग ते आत्मा–एम लक्षमां ल्ये
तो आत्मामां एकाग्र थवातुं नथी केमके ते खरेखर आत्मा नथी.
एक ज्ञाननुं अस्तित्व, ने बीजुं आत्मानुं अस्तित्व, एम कांई बे भिन्न भिन्न
अस्तित्व नथी, बंनेनुं एक अस्तित्व छे, बंने अभिन्नप्रदेशी छे, तेमज बंनेने
एकभावपणुं छे.
ज्ञान अने आत्मानो एक भाव छे, पण राग अने आत्मानो एक भाव नथी,
तेमनो तो भिन्न भाव छे; तेमज देह अने आत्मानो एक भाव नथी, तेमने भिन्न
भाव छे. अहो! आवुं भेदज्ञान करीने ज्ञानवडे जाणनारने जाणवो–तेमां महान आनंद
छे. राग अने रोग वगरनो आत्मा महान आनंदनुं धाम छे.
द्रव्यथी क्षेत्रथी काळथी के भावथी आत्माने अने ज्ञानने भिन्नपणुं नथी, पण
एकपणुं छे. पोताना आवा ज्ञानमय अस्तित्वने जाणवुं, एटले ज्ञानथी पोतानी जराय
भिन्नता न मानवी, ने पोताना ज्ञानमय अस्तित्वमां रागादि परभावोने जराय
एकमेक न करवा,–आवुं सम्यक् भेदज्ञान, एटले के स्वमां एकता ने परथी भिन्नतानुं
भान, ते मोक्षनो उपाय छे.
जे ज्ञानस्वरूप आत्मा छे तेने सामान्यपणे एकरूपपणुं होवा छतां विशेष
अपेक्षाए ज्ञानना अनेक प्रकारो होवामां कोई विरोध नथी. मति–श्रुत वगेरे ज्ञानना
भेदो छे तेओ कांई सामान्यज्ञाननी एकताने तोडता नथी पण उलटा तेने अभिनंदे छे–
भेटे छे, ए वात समयसारनी २०४ गाथामां करी छे. सर्वज्ञदेवे साक्षात् जोयेलो आवो
ज्ञानस्वरूप आत्मा, ते अज्ञानीओए कदी जोयो नथी. एकपणुं ने अनेकपणुं बंने साथे
रहे एवो तो वस्तुनो स्वभाव ज छे.
अनंत गुणनो आधार एक द्रव्य छे, ते एकमां एकाग्र थतां अनंत गुणोनो
विकास थई जाय छे; पण एकेक गुणनो भेद पाडीने लक्षमां लेवा जाय तो विकल्प ज
थाय छे ने एकपण गुणनो विकास नथी थतो. माटे अनंत गुण–पर्यायना आधाररूप
एवा एक द्रव्यने अनुभवमां लेतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणो खीले छे.