Atmadharma magazine - Ank 323
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९६
भाई! तारे आत्माने साधवो होय तो तारी चेतनाने तारा आत्मामां
संकेल... बहारथी चेतनाने पाछी वाळीने निजस्वरूपनी सन्मुख
कर...निजस्वरूपमां चेतनाने एवी तन्मय कर के जगतनी लाखो प्रतिकूळता आवे
तोय तेमांथी चलित न थाय. जुओ, आ पांडव भगवंतो...तेमणे शत्रुंजय पर्वत
पर निज ध्येयना ध्यानमां चेतनाने एवी एकाग्र करी छे के बहारमां शरीर
सळगी जतुं होवा छतां ध्यानथी डगता नथी, ने त्रण पांडवो तो ते ज वखते
केवळज्ञान प्रगट करीने मोक्ष पामे छे. वाह! आत्मानी वीरता तो जुओ! मारा
ध्यानमां बीजी चीज छे ज क्यां–के मने विघ्न करे! अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवमां
मशगुल आत्माने विघ्न केवां, ने दुःख केवां? सम्यग्दर्शन माटे पण आत्मानुं आवुं
निर्विकल्पध्यान थाय छे ने ते ध्यान वखते दुनियानुं लक्ष छूटी जाय छे.–पछी भले
कोई बहारना विकल्पो आवे, चिंता आवे.–पण ते धर्मीना अनुभवमां विकल्प
अने चिंताथी भिन्न जे आत्मा आव्यो छे तेनी मान्यता कदी छूटती नथी. वज्र
पडे तोपण धर्मी पोताना शुद्ध स्वरूपनी श्रद्धाथी डगतो नथी, ते श्रद्धामां विकल्प
अड्यो ज नथी, ते श्रद्धामां कोई भयनो प्रवेश नथी; ते तो आत्माना आनंदमां ज
व्यापी गई छे. वाह, जुओ आ सम्यग्दर्शननो धर्म! भाई! अत्यारे तो आवो
धर्म साधवानी मोसम छे...धर्मनी साची कमाणीनो आ अवसर छे.–आ
अवसरने तुं चुकीश मा. बीजी चिन्तामां अटकीश मा.
* * *
आत्मा आनंदस्वरूप वस्तु छे. क्रोध–मान–राग–द्वेषादि दोषो छे, ते दुःखरूप
छे, पर्यायमां आवा जे दोषो छे तेने दुःखदायक जाणीने दूर कर्या वगर आत्मानो
आनंद अनुभवमां आवे नहीं. मारी चैतन्यवस्तु आनंदथी भरेली, तेमां क्रोधादि
छे ज नहीं–एम लक्षमां लईने तेनो अनुभव करवानो उद्यम करे तेने क्रोधादि दोष
टळ्‌या वगर रहे नहीं. क्रोधादिथी भिन्न उपयोग स्वरूप आत्मानुं ज्यांसुधी भान
न करे त्यांसुधी जीवने क्रोधादि टळे नहीं, केमके क्रोधने ज पोतानुं स्वरूप मानीने
तेमां वर्ते छे. आ तो मोक्ष–प्राभृत छे; मोक्ष केम थाय तेनी आ वात छे. चिदानंद
तत्त्व पोते आनंदथी भरपूर छे, तेमां परवस्तुनी आशारूप लोभनो एक अंश
पण नथी. लोभनो एक