: १८ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
ज्ञानचेतना प्रगटी त्यारथी मांडीने सदाकाळ अनंतकाळ सुधी ज्ञानचेतनारूपे ज
परिणमता थका ज्ञानीजनो निजानंदरसनुं पान करो...अहो, आनंदना दरिया अंतरमां
देख्या...तेने ज हवे सदाकाळ अनुभव्या करो. आम धर्मीजीवोने प्रेरणा करी छे...ने
आवा प्रशमरसने पीनारी ज्ञानचेतनानी प्रशंसा करी छे. आवी ज्ञानचेतना सदाकाळ
आनंदरूप छे.
[समयसार–सर्वविशुद्धज्ञानअधिकारना प्रवचनमांथी]
वीतरागी
सन्तो कहे छे–
श्री नेमिचन्द्रसिद्धांत चक्रवर्ती कहे छे के–हे
भव्य! निर्विकल्प–ध्याननी प्रसिद्धि माटे
तारा चित्तने स्थिर करवा चाहतो हो तो
ईष्ट–अनिष्ट पदार्थोमां मोही न था, रागी
न था, द्वेषी न था.
श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के
निधि पामीने जन कोई
निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी
ज्ञाननिधिने भोगवे.
मुनिराज श्री पद्मप्रभस्वामी कहे छे के–
गुरुचरणोना समर्चनथी उत्पन्न थयेला
निजमहिमाने जाणतो कोण विद्वान ‘आ
परद्रव्य मारुं छे’ एम कहे?
श्री पद्मनंदी–मुनिराज कहे छे के–जे जीव
वारंवार आ आत्मतत्त्वनो अभ्यास करे
छे, कथन करे छे, विचार करे छे अने
सम्यक् भावना करे छे, ते नव
केवललब्धिसहित अक्षय उत्तम अने
अनंत एवा मोक्षसुखने शीघ्र पामे छे.