सूत्रप्राभृत, चारित्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, अने
मोक्षप्राभृत आत्मधर्म अंक ३२१–३२२–३२३ मां आवी गया छे,
बाकीनां बे लिंगप्राभृत अने शीलप्राभृत आ अंकमां आपेल छे. आ
अष्टप्राभृतना रसास्वादनथी जिज्ञासुओए प्रसन्नता व्यक्त करी छे.
हालमां अष्टप्राभृत उपर चोथी वखत प्रवचन चाले छे.
प्राभृतशास्त्र समासथी कहुं छुं.
जती नथी; माटे हे जीव! तुं भावधर्मने जाण; बाह्यलिंगथी तारे शुं कर्तव्य छे?
ते तो लिंगधारकोमां नारद समान भेषधारी छे.
पापथी मोहितबुद्धिवाळो जीव तिर्यंचयोनि–पशु जेवो छे, ते श्रमण नथी.
छे अने आर्त्तध्यान करे छे ते पापथी मोहितबुद्धिवाळो जीव तिर्यंचयोनि–पशु
जेवो छे, ते श्रमण नथी.
नित्य घणा मान–गर्व सहित वर्ते छे,–ए रीते मुनिलिंग धारण करीने पण पाप
करे छे–ते जीव नरकमां जाय छे.