: आसो : २४९६ आत्मधर्म : २१ :
१८. जेने प्रवज्याहीन गृहीजनो प्रत्ये तथा शिष्यो प्रत्ये अतिशय स्नेह–राग वर्ते छे,
तथा जे साधुना आचार तथा विनयथी रहित छे, ते श्रमण नथी पण
तिर्यंचयोनि अर्थात् पशु जेवो छे.
१९. ए रीते, जे मुनिवर विपरित प्रवृत्ति सहित वर्ते छे ते, संयमीसाधुओनी वच्चे
रहेतो होवा छतां अने घणां शास्त्रोनो जाणकार होवा छतां, भावशुद्धिथी रहित
होवाथी श्रमण नथी.
२०. जे महिलावर्गमां विश्वास उपजावीने तेने दर्शन–ज्ञान–चारित्र आपे छे ते साधु
पार्श्वस्थ (भ्रष्ट) थी पण हलको छे, ते भावशुद्धि रहित छे, ते श्रमण नथी.
२१. दुराचारी स्त्रीना घरे जे भोजन ल्ये छे, नित्य तेनी स्तुति–प्रशंसा करीने पिंडनुं
पोषण करे छे, ते बालस्वभावने (अज्ञानने) पामे छे; ते भावशुद्धि वगरनो
छे, ते श्रमण नथी.
२२. आ रीते आ लिंगप्राभृत सर्वबुद्ध एवा जिनवरोए उपदेश्युं छे, तेमां कहेला
मुनिधर्मनुं जे कष्टसहित–यत्न पूर्वक पालन करे छे ते उत्तम स्थानने अवगाहे छे.
(सातमुं लिंगप्राभृत समाप्त)
आ रा ध ना
अनादि मिथ्याद्रष्टि एवा भद्रणादि
राजपुत्रो ते ज भवमां त्रसपणुं पाम्या अने
जिनेन्द्रदेवना पादकमळनी नीकटमां धर्मश्रवण
करीने सम्यग्दर्शन तथा संयमने पाम्या अने घणा
ज थोडा काळमां रत्नत्रयनी पूर्णता करीने सिद्ध
थया.......माटे आराधना ज सार छे.
भगवती आराधना गा. १७