: २२ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
८. शील प्राभृत
१. जेओ विशालनयनवाळा छे, अने जेमनां चरण राता कमळ जेवा कोमळ छे,
एवा वीरजिनने त्रिविधे प्रणमीने शीलगुणोनुं कथन करुं छुं.
२. शीलने अने ज्ञानने विरोध नथी–एम बुधजनोए दर्शाव्युं छे. वळी शील वगर
तो विषयो ज्ञाननो विनाश करे छे.
३. प्रथम तो, दुष्करपणे ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे; ज्ञानने जाणीने तेनी भावना दुष्कर
छे; अने भावितमति एटले के जेणे ज्ञाननी भावना भावी छे–एवो जीव पण
दुष्करपणे विषयोथी विरक्त थाय छे. (आवी ज गाथा मोक्षप्राभृतमां ६प मी छे.)
४. जीव ज्यांसुधी विषयनी प्रबलतासहित वर्ते छे त्यांसुधी ते ज्ञानने जाणतो
नथी; अने ज्ञान वगर मात्र विषयोथी विरक्ति वडे जीवने पुराणा कर्मोनो क्षय
थतो नथी. (–ज्ञानसहित ज साची विरक्ति थाय छे.)
प. चारित्र वगरनुं ज्ञान, दर्शन वगरनुं लिंगग्रहण, अने संयम वगरनुं तपश्चरण–
ते बधुं निरर्थक छे.
६. चारित्रशुद्धि सहित ज्ञान, दर्शनशुद्धिसहितनुं लिंगग्रहण अने संयमसहितनुं
तप,–ते थोडुं होय तोपण महान फळने देनार छे.
७. विषयोमां विमोहित कोई मूढ पुरुषो, ज्ञानने जाणीने पण विषयादि भावमां
लीन वर्तता थका चारगतिमां रखडे छे.
८. अने जे विषयोथी विरक्त जीवो ज्ञानने जाणीने तेनी भावना सहित छे ते
तप–गुणयुक्त जीवो चार गतिने छोडीने मोक्ष पामे छे,–एमां सन्देह नथी.
९. जेम आंच आपवाथी, अने गेरु तथा लूणना लेपथी कंचन विशुद्ध थाय छे तेम
जीव पण विमळ ज्ञानजळ वडे विशुद्ध थाय छे.
१०. कोई पुरुष ज्ञानगर्वित थईने विषयोमां रंजित थाय छे, तो त्यां मंदबुद्धि एवा
ते कायर पुरुषनो ज दोष छे, ज्ञाननो दोष नथी.
११. सम्यक्त्वसहित ज्ञानथी, दर्शनथी, तपथी अने चारित्रथी जेमनुं चारित्र विशुद्ध
छे–ते जीवो परिनिर्वाणने पामे छे.