: आसो : २४९६ आत्मधर्म : २प :
३६. जे श्रमणनुं जन्मवृक्ष लावण्यशीलवडे कुशळ छे ते शीलसहित महात्माना
गुणोनो विस्तार भव्य जीवोमां फेलाय छे.
३७. ज्ञान–ध्यान–योग, दर्शनशुद्धि, आत्माधीन वीर्य, अने सम्यक्त्वदर्शन, तेना वडे
जिनशासनमां बोधि पमाय छे.
३८. जिनवचननो सार ग्रहण करीने जेओ विषयविरक्त थया छे तथा शीलरूप निर्मळ
जळ वडे स्नान करीने शुद्ध थया छे एवा धीर तपोधन सिद्धालयसुखने पामे छे.
३९. जे सर्व गुणसंपन्न छे, कर्मो जेमां क्षीण छे, सुखदुःखथी जे रहित छे, विशुद्ध
मनवाळी छे अने जेणे कर्म रजने दूर उडाडी दीधी छे–एवी आराधना प्रसिद्ध छे.
४०. उत्तम भक्तिसहित अने सुविशुद्ध दर्शनरूप एवुं सम्यक्त्व छे, अने विषयोथी
विरक्तिरूप शील छे. आवा सम्यक्त्व अने शील सहित ज्ञानने ज ज्ञान
कहेवामां आव्युं छे. ते ज मोक्षनुं कारण छे.
(आठमुं शीलप्राभृत पूर्ण)
[अष्टप्राभृत समाप्त]
[अष्टप्राभृतना अर्थोनी पूर्णता प्रसंगे कुंदकुंदस्वामी आदि वीतरागी संतोने
भावभक्तिथी याद करीने फरीफरीने वंदन करीए छीए. आ अष्टप्राभृत अष्टकर्मोने
नष्ट करीने अष्ट महागुणोनी प्राप्ति करावो.
–अनु० ब्र. हरिलाल जैन.)
धन्य छे श्री गुरु ने
“स्वभाव सम्यग्ज्ञान छे, तेनाथी कोई वस्तु तन्मयरूप नथी.” मरी
जाय, सळगी जाय, गळी जाय, के बळी जाय ईत्यादि अनेक् प्रकारनां शुभाशुभ
कष्ट करवा छतां पण स्वस्वरूप स्वानुभवगम्य सम्यग्ज्ञानमय परब्रह्म
परमात्मा सिद्ध परमेष्ठिना प्रत्यक्ष अनुभवनी परम अवगाढता अने
अचलतानो अखंड लाभ नहीं थाय. पण सद्गुरु महाराज सहजमां, विना
परिश्रमे, शुभाशुभ कष्ट नहि करवा छतां पण सदाकाळ ज्ञानमय जागती
ज्योतिनो तन्मयी मेळ करावी दे छे. धन्य छे. श्री गुरुने.
(– सम्यग्ज्ञानदीपिका)