Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९६ आत्मधर्म : २७ :
त्यारपछी गाथा ३प मां सम्यग्ज्ञान करवा माटे कहे छे के–
कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु।
संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तं आत्मरूपं तत्।३५।
अर्थात्, सत् अनेकान्तस्वरूप तत्त्वोमां संशय–विपर्यय–अध्यवसायथी रहित
यथार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान कर्तव्य छे, आ सम्यग्ज्ञान ‘आत्मारूप’ छे.
त्यारपछी गा. ३९ मां सम्यक्चारित्र संबंधी कहे छे के–
चारित्रं भवति यतः समस्त सावधयोगपरिहरणात्।
सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनं आत्मरूपं तत्।३९।
समस्त सावधयोगना परिहारवडे, सकल कषायथी रहित निर्मळ तथा उदासीन
एवुं चारित्र थाय छे, ते चारित्र ‘आत्मरूप’ छे. सम्यग्ज्ञानपूर्वक आवा चारित्रनुं
आराधन करवुं. आ रीते निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रणेने आत्मारूप कह्यां
छे, ने ते ज मोक्षमार्ग छे. व्यवहाररत्नत्रयने ‘आत्मारूप’ नथी कह्यां, ते तो विकल्परूप
छे, ते कांई मोक्षमार्ग नथी.
जुओ, विकल्परूप एवा व्यवहार दर्शन–ज्ञान–चारित्रने कर्तव्य नथी कह्यां, पण
विकल्परहित ‘आत्मारूप’ एटले के आत्मानी शुद्धपर्यायरूप एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रने सदा कर्तव्य कहेल छे. आ त्रणेय छे तो पर्याय, पण ते रागथी भिन्न थईने
आत्माना स्वभाव साथे अभेद थयेली छे. चिदानंदस्वभावमां एकाग्र थतां रागनुं
कर्तृत्व न रहे ने निर्मळ पर्याय प्रगटे ते धर्म छे. ते पर्यायनो कर्ता आत्मा छे, कांई पर
तेनो कर्ता नथी. शुद्धद्रव्यने द्रष्टिमां लेतां ‘निर्मळपर्यायने करुं’ एवो विकल्प तेमां नथी
पण निर्मळपर्याय त्यां थई जाय छे खरी, स्वभाव तो पहेलेथी हतो, पण ज्यारे द्रष्टिमां
लीधो त्यारे ते प्रगट थयो एटले के ‘हुं तो आवो शुद्ध छुं’ एम पोताने खबर पडी.
आवा शुद्धस्वभावना अनुभवपूर्वक ज साततत्त्वोनुं साचुं ज्ञान थाय छे; अने
त्यारपछी ज चारित्र होय छे. आवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र सदैव कर्तव्य छे एम
आचार्यदेवे कह्युं.
प्रश्न:– आत्माने वळी कर्तव्य एटले के क्रिया होय?
उत्तर:– हा, आत्माने ध्रुवस्वभावनी अपेक्षाए कर्तव्य नथी, ध्रुवभाव अक्रिय छे,
पण आत्मानी पर्यायमां तो कर्तव्य छे, पर्याय तो कार्य करे ज छे. ध्रुवस्वभावनी