Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९६ आत्मधर्म : २९ :
जेने धर्म करवो होय तेणे ते धर्मपर्यायमां ध्येय करवा योग्य, लक्षमां लेवा योग्य
आत्मा केवो छे? ते ओळखवो जोईए. ध्यान ते पर्याय छे, शुद्धपारिणामिकभाव
ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी. ध्यानपर्याय पोते ध्येयरूप नथी; अने त्रिकाळीध्रुव पोते
ध्यानपर्यायरूप नथी. छतां ‘आ ध्येय छे’ एम नक्की कर्युं छे ध्यानपर्याय वडे; कांई ध्रुव
ते निर्णय नथी करतुं. उत्पाद–व्यय–ध्रुवयुक्त सत् छे; तेमां उत्पाद–व्यय परिणाम
नाशवान छे, ते पर्यायनुं लक्ष करनार ज्ञाननो विषय छे, अने जे ध्रुव छे ते द्रव्यनयनो
विषय छे, ते अविनाशी छे. भाई, आ बधा भावो तारा आत्मामां समाय छे. आ कोई
बीजानी वात नथी, पण तारा आत्मामां जे बनी रह्युं छे तेनी वात छे.
हे योगी! एटले के पोताना आनंदस्वरूपमां एकाग्र थईने तेमां उपयोगने
जोडनार हे धर्मी! भगवान आत्मा जिनदेवे एवो कह्यो छे के जे परमार्थे उपजतो के
मरतो नथी. शुद्धात्मानी अनुभूतिना अभावमां जन्म–मरण थाय छे, पण ध्रुवचीज
उत्पन्न थती नथी के मरती पण नथी. शुद्धात्मानी अनुभूतिवडे आवा आत्माने हे
योगी! तमे जाणो! योगीओ तो आवा आत्माने जाणे ज छे, पण तेमने संबोधीने
बीजा जीवोने पण एवा आत्मानो अनुभव करवानुं कह्युं छे.
‘विकारनी उत्पत्ति आत्माना स्वभावमांथी नथी थती पण कर्मथी तेने उत्पत्ति
थाय छे’ –पण एम कोण कही शके?–के जेणे विकार वगरना पोताना शुद्धआत्माना
आनंदनो अनुभव कर्यो छे ते ज जाणे छे के मारा आ आनंदमां रागादि विकारनो
अभाव छे, अने हवे जुदापणे जे थोडाक रागादि रह्या छे ते स्वभावथी उत्पन्न थयेला
न होवाथी तेने कर्मथी उत्पन्न थयेला कही दीधा. बाकी पर्यायअपेक्षाए तो ते पण
पोतानुं परिणमन छे एम धर्मीने लक्षमां ले. पण शुद्धआत्मानी सन्मुख थईने ‘हुं
चैतन्य छुं’ एवी जे अनुभूति थई तेमां रागादि छे ज नहीं. एटले ते अनुभूतिनी
पर्यायमां पण जन्म–मरण के राग–द्वेष नथी. जेने ‘शुद्ध’ नो अनुभव नथी ते अज्ञानी
शुभाशुभमां तन्मय थईने परिणमे छे, ते तो रागरूपे ज पोताने (–आखा आत्माने)
अनुभवे छे. धर्मी शुभाशुभ परिणामने पोताना ज्ञानथी अन्य ज्ञेयपणे देखे छे. जेणे
स्वानुभूतिवडे आनंदना सागरनो स्वाद नथी लीधो ते जीव अनुभूतिना अभावमां
शुभाशुभकर्मबंधनुं तथा जीवन–मरणनुं कर्तृत्व ज देखे छे. जो अंतर्मुख थईने
शुद्धआत्मानी अनुभूति करे तो तेने शुभाशुभना अकर्तारूप एवुं ज्ञानपरिणमन प्रगटे.
स्वानुभूति–पर्याय प्रगट थतां आत्मामां शुं थयुं?–के निर्मळ वीतरागी धार्मिक